

गुरुवाणी/ केन्द्र
भावों की अशुद्धि या विशुद्धि के पीछे होती है कार्मण शरीर की भूमिका : आचार्यश्री महाश्रमण
तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि पुरुष अनेक चित्तों वाला होता है। प्रत्येक प्राणी के भीतर कार्मण शरीर होता है। जैन तत्व विद्या में पाँच प्रकार के शरीर बताए गए हैं। हमारा शरीर औदारिक होता है, जो मनुष्यों और तिर्यंचों का होता है। इस औदारिक शरीर के अस्तित्व में रहते हुए साधना के माध्यम से मनुष्य इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त कर सकता है। वैक्रिय शरीर सामान्यतः देवों और नारकीय जीवों का होता है, किंतु विशेष परिस्थितियों में यह तिर्यंचों और मनुष्यों में भी कुछ समय के लिए प्रकट हो सकता है। आहारक शरीर केवल मनुष्यों में पाया जाता है, और वह भी केवल विशिष्ट ज्ञान-लब्धि प्राप्त साधुओं में। ऐसे साधु किसी विशेष प्रयोजन से आहारक शरीर का पुतला निकालते हैं। यह पुतला केवलज्ञानियों के पास जाकर प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करता है और कुछ समय बाद विलीन हो जाता है।
औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर स्थूल श्रेणी के शरीर माने जाते हैं। शेष दो शरीर—तैजस और कार्मण—हर सांसारिक प्राणी में होते हैं। तैजस शरीर सूक्ष्म कोटि का होता है, जबकि कार्मण शरीर सूक्ष्मतर होता है। हमारे भावों की जड़ में यही कार्मण शरीर होता है, और जब तक इस पर हमारा नियंत्रण नहीं होता, यह हमारे जीवन की दिशा तय करता है। इसे ही हमारे समस्त कार्यों का संचालक या गाड़ी का ड्राइवर कहा जा सकता है। एक गति से दूसरे गति में ले जाने वाला और भेजने वाला कार्मण शरीर ही होता है। भावों की अशुद्धि या विशुद्धि के पीछे कार्मण शरीर की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यही कारण है कि पुरुष अनेक चित्तों वाला होता है—कभी उसमें अच्छे भाव उत्पन्न होते हैं, तो कभी बुरे। ये भाव चित्रपट के समान होते हैं, जो निरंतर बदलते रहते हैं। कार्मण शरीर में मोहनीय कर्म का विशेष प्रभाव रहता है, जो व्यक्ति के विचारों और कर्मों को प्रभावित करता है। इसलिए हमें यह प्रयास करना चाहिए कि हमारे भीतर दुर्भावनाएँ न आएँ और सद्भावना बढ़े।
हमारी साधना आत्मा की शुद्धि के लिए है, जिससे कर्मों की निर्जरा भी होती है। हमारी परंपरा में तीन प्रकार की सामायिक मान्य हैं—छः कोटि की, आठ कोटि की एवं नौ कोटि की। श्रावक इन तीनों कोटियों की सामायिक कर सकता है। सामायिक के दौरान श्रावक के सावद्य कार्य भी अप्रत्यक्ष रूप से चलते रहते हैं, जैसे—खाने की व्यवस्था, व्यापार या ब्याज की आय आदि। किंतु साधु के लिए नौ कोटि का संपूर्ण त्याग अनिवार्य होता है। सामायिक संवर रूप है, किंतु यदि उसमें जप, स्वाध्याय या ध्यान चलता रहे, तो यह शुभ योग बन जाता है। इससे कर्मों की निर्जरा होती है और पुण्य का बंध भी होता है। सामायिक में पाप का बंध भी संभव है, क्योंकि श्रावक में अभी भी कषाय, प्रमाद और अव्रत आश्रव चालू रहता है। यहाँ तक कि साधुओं के लिए भी पाप कर्म का बंध निरंतर होता रहता है, विशेष रूप से छठे और सातवें गुणस्थान तक के साधुओं में। जन्म और मरण का कारण कार्मण शरीर है, इसलिए इसे ‘कारण शरीर’ भी कहा जाता है। यदि हम संवर और निर्जरा की साधना करें, तो हमारे भाव शुद्ध होंगे, और एक समय ऐसा आएगा जब आत्मा पूर्णतया कर्ममुक्त होकर विशुद्ध हो जाएगी।