

स्वाध्याय
धर्म है उत्कृष्ट मंगल
साध्यप्राप्ति के बाद स्थिरता काम्य है, परन्तु साधना-काल में वह अभीष्ट नहीं है। साधना-काल में स्थिरता का अर्थ है प्रगतिशीलता पर रोक। सब साधु एक समान नहीं होते हैं। उनमें एक-दूसरे में अनेक दृष्टियों से अन्तर हो सकता है। परन्तु लक्ष्य परम शुद्धि को प्राप्त होना रहना चाहिए। साधना के विकास के लिए विभिन्न प्रयोग हैं। उनमें एक है जिनकल्प को साधना। वृहत्कल्प भाष्य के अनुसार उसे स्वीकार करने का इच्छुक मुनि पहले पूर्वाभ्यास करता है। भय, राग आदि पर कुछ अंशों में विजय प्राप्त करता है। विशेष श्रुतवान् होता है। तप भावना, सत्त्व भावना, श्रुत भावना, एकत्व भावना और बल भावना से भावितात्मा बनकर जिनकत्पिक के अनुरूप होकर गच्छ में ही रहता हुआ साधना करता है। वह तीसरी पौरुषी (दिन के तीसरे प्रहर) में भिक्षाचर्या करता है। उसमें भी प्रान्त-रुक्ष आहार ग्रहण करता है और अभिग्रहयुक्त एषणा करता है। पश्चिमकाल में यानी संघ को अपनी सेवाएं दे चुकने के बाद व तीर्थ-अव्यवच्छिति का कार्य करने के बाद वह सत्पुरुषों द्वारा सेवित, धीर पुरुषों द्वारा आराधित, परम घोर, अत्यन्त दुरनुचर और एकान्त हितकारी जिनकल्पिक-विहार को स्वीकार करता है। वह उत्कटुक आसन का अभ्यास करता है। जिनकल्पिक बनने वाला यदि आचार्य होता है तो उसे उत्तराधिकारी को गण का दायित्व भी सौंपना होता है। वह अपने आपको साधना के अनुकूल बनाकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अनुकूलता होने पर संघ का सम्मेलन बुलाता है। संघ को बुलाने की संभाव्यता न होने पर अपने गण को तो अवश्य ही एकत्रित करता है। यदि तीर्थंकर हों तो तीर्थंकर के पास, वे न हों तो गणधर के पास, वे न हों तो चतुर्दशपूर्वी के पास, वे भी न हों तो अभिन्नदशपूर्वी के पास, वे भी न हों तो वटवृक्ष के नीचे और वह भी न हो तो अशोक, अश्वत्थ आदि वृक्ष के नीचे जिनकल्प को स्वीकार करता है। स्वीकरण की विधि अग्रलिखित है। आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है अपने पीछे योग्य व्यक्ति को तैयार करना, जो गण का नेतृत्व सम्यग् रूप से कर सके। इसलिए पहले आचार्य कुछ समय के लिए एक शिष्य को प्रमुख के रूप में स्थापित करते हैं, फिर उसे पूर्णरूपेण गण का दायित्व सौंप देते हैं। श्रमण संघ से क्षमायाचना करते हैं और उन व्यक्तियों से विशेष रूप से क्षमायाचना करते हैं जिनके साथ कोई अप्रिय व्यवहार पहले हुआ है। जिनकल्प स्वीकर्ता कहता है-
जइ किंचि पमाएणं, न सुट्ठु मे वट्टिय मए पुव्विं।
तं भे खामेमि अहं निस्सल्लो निक्कसाओ य।।
'जो कोई असम्यक् व्यवहार प्रमाद से मैंने आपके साथ किया हो तो मैं आपसे निःशल्य और निष्कषाय भाव से क्षमायाचना करता हूं। आचार्य के इस प्रकार कहने पर शेष साधु आनन्द के आंसू बहाते हुए भूमि पर मस्तक टिका वन्दना करते हैं, विनम्रता से खमतखामणा करते हैं। दीक्षाक्रम के अनुसार खमतखामणा किया जाता है।
जिनकल्प के लिए उद्यत आचार्य अपने उत्तराधिकारी को शिक्षा देते हैं-यह बाल-वृद्ध साधुओं वाला संघ मैंने तुम्हें सौंपा है। बिना खेद-खिन्न हुए प्रसन्नता से इस संघ की देखरेख करना। सारणा-वारणा के द्वारा इसकी पालना करना। गुरु ने मुझे छोड़ दिया है, ऐसा विचार मत करना, क्योंकि यही परम्परा है-शिष्य तैयार हो जाते हैं, तब संघ-परम्परा को अव्यंवच्छिन्न रूप से चलाने में सक्षम मुनि को भार सौंपकर आचार्य अभ्युद्यत विहार को स्वीकार कर लेते हैं, विशेष साधना में लग जाते हैं, अपना दायित्व योग्य शिष्य को सौंप देते हैं।
तुम भी ध्यान रखना, जब शिष्यों का निष्पादन हो जाए, अन्त में इसी प्रकार अभ्युद्यत विहार स्वीकार करना।
जो मुनि बहुश्रुत हैं, तुमसे दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ हैं, उनके प्रति विनयपूर्ण व्यवहार रखना। इसमें प्रमाद मत करना। जो साधु तप, स्वाध्याय और वैयावृत्त्य में से जिस उपक्रम के लिए उपयुक्त हो, उसे उसी में प्रवृत्त करना। अन्य साधुओं को शिक्षा देते हुए वे, कहते हैं- साधुओं! इस (नए आचार्य) का विनय रखना, इसकी अवज्ञा मत कर देना। यह छोटा है, दीक्षा पर्याय में हमसे सम या अवम है, हमसे अल्पतर श्रुत वाला है ऐसा सोचकर इसकी आज्ञा-पालना में प्रमाद करना। इसका तिरस्कार न करना। यह तुम्हारे लिए मैं ही हूं। इसने मेरा स्थान ग्रहण कर लिया है। तुम्हारे लिए यह पूज्य है, यह बहुत गुणवान है। इस प्रकार उत्तराधिकारी और शेष संघ दोनों को शिक्षा देकर वे वहॉँ से विहार कर देते हैं।