

स्वाध्याय
श्रमण महावीर
भगवान् ने कहा, 'जैसी तुम्हारी इच्छा।'
इन्द्रभूति ने अपने शिष्यों से मंत्रणा की। उन सबने अपने गुरु के पद-चिह्नों पर चलने की इच्छा प्रकट की। इन्द्रभूति अपने पांच सौ शिष्यों सहित भगवान् की शरण में आ गए, आत्म-साक्षात्कार की साधना में दीक्षित हो गए।
इन्द्रभूति ने श्रमण-नेता के पास दीक्षित होकर ब्राह्मणों की गौरवमयी परम्परा के सिर पर फिर एक बार सुयश का कलश चढ़ा दिया। ब्राह्मण विद्वान् बहुत गुणग्राही और सत्यान्वेषी रहे हैं। उनकी गुणग्राहिता और सत्यान्वेषी मनोवृत्ति ने ही उन्हें सहस्राब्दियों तक विद्या और चरित्र में शिखरस्थ बनाए रखा है।
इन्द्रभूति की दीक्षा का समाचार जल में तेल-बिन्दु की भांति सारे नगर में फैल गया। अग्निभूति और वायुभूति ने परस्पर मंत्रणा की। उन्होंने सोचा, 'भाई जिस जाल में फंसा है, वह साधारण तो नहीं है। फिर भी हमें उसकी मुक्ति का प्रयत्न करना चाहिए।
अग्निभूति अपने पांच सौ शिष्यों के साथ इन्द्रभूति को उस इन्द्रजालिक के जाल से मुक्त कराने को चले। जनता में बड़ा कुतूहल उत्पन्न हो गया। लोग परस्पर पूछने लगे, 'अब क्या होगा? इन्द्रभूति श्रमण नेता के जाल से मुक्त होंगे या अग्निभूति उसमें फंस जाएंगे?' कुछ लोगों ने कहा- 'दोनों भाई मिलकर महावीर का सामना कर सकेंगे और उन्हें अपने मार्ग पर ले जाएंगे।' कुछ लोगों ने इसका प्रतिकार किया। वे बोले, 'इन्द्रभूति क्या कम विद्वान् था? यह कोई दूसरा ही जादू है। श्रमणनेता के पास जाते ही विद्वत्ता की आंच धीमी हो जाती है। उनके सामने जाते ही मनुष्य विचार-शून्य से हो जाते हैं। हमें स्पष्ट दीख रहा है कि अग्निभूति की भी वही दशा होगी जो इन्द्रभूति की हुई।'
अग्निभूति अब चर्चा के केन्द्र बन चुके थे। वे अनेक प्रकार की चर्चा सुनते हुए महासेन वन के बाहरी कक्ष में जा पहुंचे। वहां पहुंचते ही उनकी वही गति हुई जो इन्द्रभूति की हुई थी। वे समवसरण के भीतर गए। भगवान् ने वैसे ही संबोधित किया, 'गौतम अग्निभूति ! तुम आ गए?'
अग्निभूति को अपने नाम-गोत्र के संबोधन पर आश्चर्य हुआ। उनका आश्चर्यचकित मन विकल्पों की सृष्टि कर रहा था। इधर भगवान् ने उनके आश्चर्य पर गम्भीर प्रहार करते हुए कहा, 'अग्निभूति! तुम्हें कर्म के बारे में सन्देह है। क्यों, ठीक है। न?'
अग्निभूति इन्द्रभूति के सामने देखने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे अपने भाई से कुछ निर्देश चाह रहे हों। पर भाई क्या कहे? उनका सिर अपने आप श्रद्धानत हो गया। वे बोले, 'भन्ते! मेरा सर्वथा अप्रकाशित सन्देह प्रकाश में आ गया, तब उसका समाधान भी प्रकाश में आना चाहिए।'
'भगवान् ने अग्निभूति के विचार का समर्थन किया।' 'अग्निभूति! क्या तुम नहीं जानते, क्रिया की प्रतिक्रिया होती है?'
'भंते! जानता हूं, क्रिया की प्रतिक्रिया होती है।'
'कर्म और क्या है, क्रिया की प्रतिक्रिया ही तो है। क्या तुम नहीं जानते, हर कार्य के पीछे कारण होता है?'
'भंते! जानता हूं।'
'मनुष्य की आन्तरिक शक्ति के विकास का तारतम्य दृष्ट है, किन्तु उसकी पृष्ठभूमि में रहा हुआ कारण अदृष्ट है। वही कर्म है।'
'भंते! उस तारतम्य का कारण क्या परिस्थिति नहीं है?'