

स्वाध्याय
संबोधि
'सयं सयं उवट्ठाणे, सिद्धि मेव न अन्नहाः सम्प्रदायों का यह स्वर सदा ही प्रबल रहा है। सभी यह दावा करते हैं कि मेरे सम्प्रदाय में आओ तुम्हारी मुक्ति होगी। मानो परमात्मा ने सम्प्रदायों के हाथों में प्रमाणपत्र दे दिया हो। मुक्ति का सूत्र सम्प्रदायों के पास हो सकता है किन्तु मुक्ति सम्प्रदायों में नहीं है। मुक्ति का अस्तित्व सबसे मुक्त है, स्वतंत्र है। सम्प्रदाय मुक्त नहीं करते, और न कोई व्यक्ति बंधन मुक्त करता है। 'बोधिधर्म' ध्यान परंपरा के एक महान् आचार्य हुए हैं। शिष्य ने उनसे जिज्ञासा की 'बुद्ध का नाम लेना चाहिए या नहीं?' कहा 'नहीं'। अगर नाम मुंह में आ जाए तो कुल्ला कर साफ कर लेना चाहिए। मार्ग में आते हुए मिल जाए तो देखना नहीं, भाग जाना।' शिष्य को यह आशा नहीं थी। वह डरा। क्या कह रहे हैं? बोधिधर्म बोले-'सुनो! यह तो कुछ भी नहीं है। जब मेरी सत्संग होती है तब एक बार स्थिति इतनी विकट हो गई थी कि तलवार लेकर गर्दन काट देनी पड़ी, तभी मैं अपने को पा सका। शिष्य अवाक् रह गया। उसे यह देखकर और भी आश्चर्य हुआ कि गुरु रोज बुद्ध-प्रतिमा की पूजा करते हैं, नमस्कार करते हैं।
शिष्य ने पूछा-'फिर यह पूजा और नमस्कार क्यों करते हैं? 'बोधिधर्म' ने कहा वे गुरु हैं। उन्होंने स्वयं ही मुझे यह समझाया था कि जब मुझे छोड़ दोगे तभी अपने को प्राप्त कर सकोगे। यह तो सिर्फ अनुग्रह है।
महावीर भी ठीक ऐसा ही गौतम से कह रहे हैं 'वोच्छिंदि सिणेहमप्पणो'-मेरे साथ जो स्नेह है, उसे छोड़कर स्वयं में प्रतिष्ठित हो।
महावीर ने कहा है जो सम्यक्ज्ञान और सम्यग् आचरण-चरित्र सम्पन्न, होते हैं, वे मुक्त होते हैं। बुद्ध ने शील, समाधि और प्रज्ञा का सूत्र दिया है। सम्यग् ज्ञान से स्वयं का बोध होता है, और चरित्र से स्वभाव में अवस्थित रहता है। जिसने स्वयं को जान लिया और स्वयं में अपनी प्रतिष्ठा बना ली, मुक्ति उससे कैसे दूर हो सकती है? साध्य के लिए ज्ञान और आचरण अपेक्षित है।
४२. प्रशस्ताभिर्भावनाभिः, भावितः सुगतिं व्रजेत्।
अप्रशस्तभावनया, सद्गतिः स्याद् विराधिता॥
प्रशस्त भावना से भावित पुरुष सद्गति को प्राप्त होता है। अप्रशस्त भावना से सद्गति विराधित होती है, दुर्गति प्राप्त हो जाती है।
वर्तमान की नई चिंतन शैली ने इसे सिद्ध कर दिया है कि सुखी, शांत, प्रसन्न, स्वस्थ और चिंतनमुक्त व्यक्ति वही है जिसका चिंतन सदा सकारात्मक होता है। सकारात्मक सोच, चिंतन व भाव में न अपना अहित होता है और न दूसरों का। निषेधात्मक भाव स्व और पर दोनों के लिए अनिष्टकारक होते हैं, किन्तु वे पर के लिए इतने नहीं होते जितने अपने लिए होते है। मनुष्य स्वास्थ्य चाहता है, शांति चाहता है किन्तु वह पॉजिटिव चिंतन को महत्त्व नहीं देता।
पॉजिटिव सोच एक तपस्या है, एक साधना है और यह साधना ऐसी साधना है कि व्यक्ति इसके द्वारा सब कुछ प्राप्त कर लेता है। यह कथन सर्वथा सत्य है, कि आप जैसा सोचते हैं वैसा ही बनते हैं। बुरा सोचना नरक है और अच्छा सोचना स्वर्ग है। इसके लिए एक ही अपेक्षा है कि व्यक्ति अपने मन मैं क्षुद्र विचारों, भावों को प्रवेश न करने दें, जैसे ही लगे कि दूषित भाव की तरंगें उठ रही हैं इन्हें वहीं रोक दे, उनका नियमन कर लें और उनके स्थान पर शुभ, पवित्र, मंगलमय और कल्याणकारी भावों को विराजित करे लें। ईर्ष्या, घृणा, क्रोध, बीमारी, अहंकार, दूसरों का अहित चिंतन, माया, दम्भ, भय, लालच आदि असंख्य नकारात्मक भाव हैं ये सब हमारे मन, मस्तिष्क और हृदय को संकीर्ण, दूषित व रुग्ण बनाते हैं। इसलिए आगम तथा ऋषि साहित्य में सत्संकल्पों की एक लंबी धारा प्रवाहित हो रही है, उन संकल्पों का चयन कर चित्त को भावित करते हुए नकारात्मक सोच से अपने को मुक्त कर जीवन को स्वर्णिम बताये। 'दैवीसंपविमोक्षाय' मुक्ति के लिए दैवी गुणों का अवलंबन लेना। यह प्रशस्त भावना का ही रूप है। सद्गति का यह सीधा सरल पथ है। इससे उल्टे अप्रशस्तभाव आसुरी संपद् बंधन के लिए है, दुर्गति के लिए है।
४३.
वाचः कायस्य कौकुच्यं, कन्दर्प विकथा तथा। कृत्वा विस्मापयत्यन्यान्, कान्दर्पी तस्य भावना ॥
वाणी और शरीर की चपलता, कामचेष्टा और विकथा के द्वारा जो दूसरों को विस्मित करता है, उसकी भावना 'कान्दर्पी' भावना कहलाती है।
४४. मन्त्रयोगं भूतिकर्म, प्रयुक्ते सुखहेतवे। अभियोगी भवेत्तस्य, भावना विषयैषिणः ।।
विषय की गवेषणा करने वाला जो व्यक्ति सुख की प्राप्ति के लिए मंत्र और जादू-टोने का प्रयोग करता है, उसकी भावना 'अभियोगी' भावना कहलाती है।
४५.' ज्ञानस्य ज्ञानिनो नित्यं, संघस्य धर्मसेविनाम् । वदन्नऽवर्णानाप्नोति, किल्विषिकीञ्च भावनाम् ।।
ज्ञान, ज्ञानवान्, संघ और धार्मिकों का जो अवर्णवाद बोलता है, उसकी भावना 'किल्विषिकी' भावना कहलाती है।
४६. अव्यवच्छिन्नरोषस्य, क्षमणान्त्र प्रसीदतः । प्रमादे नानुतपतः, आसुरी भावना भवेत् ॥
जिसके रोष निरंतर बना रहता है, जो क्षमायाचना करने पर भी प्रसन्न नहीं होता और जो अपनी भूल पर अनुताप नहीं करता, उसकी भावना 'आसुरी' भावना कहलाती है।
४७. उन्मादिशको मार्गनाशकश्चात्मघातकः । मोहयित्वात्मनात्मानं, संमोही भावनां व्रजेत् ।।
जो उन्मार्ग का उपदेश करता है, जो दूसरों को सन्मार्ग से भ्रष्ट करता है, जो आत्महत्या करता है, जो अपनी आत्मा को आत्मा से मोहित करता है, उसकी भावना 'संमोही' भावना कहलाती है।
एडमंड वर्क भुलक्कड़ स्वभाव के थे। एक बार उन्हें किसी छोटे गांव के
चर्च में भाषण देना था। समय था सात बजे का। पहुंच गये घोड़े पर बैठकर चार बजे। वहां कोई नहीं था। सिगरेट पीने लगे। घोड़े का मुंह फेर दिया। वापिस घर चले आये। दिशा के परिवर्तन होते ही सब बदल गया। जीवन भी ऐसा ही है। जीवन की दिशा बदल जाए तो संपूर्ण जीवन कांतिमय हो जाता है। भावनाओं का अभ्यास इसीलिए विकसित किया गया। मनुष्य भावना के अतिरिक्त कुछ नहीं है। वह जो कुछ करता है, वह सारा अर्जित भावना का प्रतिफल है। भावना सत् और असत् दोनों प्रकार की होती है। ये पांच भावनाएं असत् हैं। इन