

गुरुवाणी/ केन्द्र
संवर और निर्जरा से प्राप्त होती है अखंड शांति : आचार्यश्री महाश्रमण
जिनवाणी के व्याख्याता आचार्यश्री महाश्रमणजी प्रातः 8 किमी का विहार कर दहींसरा पधारे। आगम वाणी की अमृत वर्षा करते हुए आचार्य प्रवर ने फरमाया कि इस संसार में हर समय कम से कम बीस तीर्थंकर विराजमान रहते हैं, जबकि अधिकतम एक साथ एक सौ सत्तर तीर्थंकर हो सकते हैं। आचार्यश्री ने कहा कि जैसे सभी प्राणियों का आधार पृथ्वी होती है, वैसे ही जितने बुद्ध अतीत में हुए हैं और जितने बुद्ध भविष्य में होंगे, उन सबका आधार शांति है। तीर्थंकर और बुद्ध बनने के लिए केवलज्ञानी होना आवश्यक है, और केवल ज्ञान उसी को प्राप्त होता है जिसके मोहनीय कर्म क्षीण हो चुके हों। मोहनीय कर्म के क्षय होने पर व्यक्ति को सच्ची शांति प्राप्त हो जाती है।
मनुष्य को शांति प्रिय होती है, किंतु गुस्सा, लोभ, अहंकार, भय और चिंता इसके प्रमुख बाधक तत्व हैं। आलस्य भी शांति में विघ्न डालता है। व्यक्ति के चेहरे को देखकर यह ज्ञात किया जा सकता है कि वह प्रसन्न है या व्यथित। चिंता और चिता में कोई विशेष अंतर नहीं—दोनों ही जलाने का कार्य करती हैं। चिता केवल निर्जीव शरीर को जलाती है, जबकि चिंता जीवित व्यक्ति को भीतर से जला देती है। इसलिए चिंता करने के बजाय चिंतन करना चाहिए और समस्याओं के समाधान खोजने का प्रयास करना चाहिए।
आचार्य प्रवर ने आगे कहा - चित्त में प्रसन्नता एवं क्षमाशीलता होनी चाहिए। अपशब्द सुनकर विचलित नहीं होएं बल्कि धैर्य रखें। निर्भय रहने से शांति प्राप्त होती है। लोभ से बचकर संतोष में रहने का प्रयास करें, क्योंकि संतोष ही सबसे बड़ा धन है और परम सुख का स्रोत है। मानव जीवन का वास्तविक लाभ धर्म और अध्यात्म की साधना में है। संवर-निर्जरा और त्याग-संयम की आराधना से जीवन को सफल एवं सुफल बनाया जा सकता है।
किसी प्रतिकूल परिस्थिति में भी क्रोध न करना व्यक्ति के बड़प्पन को दर्शाता है। जो क्रोध पर नियंत्रण रखता है, वही धैर्यवान पुरुष कहलाता है। आचार्यश्री तुलसी के जीवन में अनेक संघर्ष आए, किंतु उन्होंने सहनशीलता और शांति को बनाए रखा। ध्यान की साधना का निरंतर अभ्यास करना चाहिए। इस अमूल्य मानव जीवन को पाप और भोग-विलास में व्यर्थ न गंवाएँ। यह जीवन कल्पवृक्ष, चिंतामणि रत्न और गजराज के समान बहुमूल्य है, अतः इसे व्यर्थ गँवाने के बजाय इसका पूर्ण लाभ उठाने का प्रयास करें। शांति में रहने का निरंतर प्रयास करना चाहिए, क्योंकि यही सच्चा सुख है। इस अवसर पर पूज्यवर के स्वागत में कन्याशाला की ओर से मनोज भाई ने अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त कीं। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।