अनावश्यक हिंसा से बचने का हो प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अनावश्यक हिंसा से बचने का हो प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण

युगनायक युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की पावन सन्निधि में आज त्रि-दिवसीय उपासक सेमिनार एवं 'बेटी तेरापंथ की' का द्वितीय दो दिवसीय सम्मेलन का शुभारंभ हुआ। धर्मोपदेशक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आगम वाणी की अमृत वर्षा करते हुए फरमाया- आयारो के प्रथम अध्ययन में कहा गया है- हमारी दुनिया में अनंत जीव है। सिद्ध तो मुक्त हैं, उनकी हिंसा नहीं हो सकती, हिंसा तो संसारी जीवों की ही होती है। शरीर का छेदन-भेदन हो सकता है, आत्मा अछेद्य, अदाह्य, अमर-अविनाशी है। हमारी दुनिया में स्थावर व त्रस जीव भी हैं। केवलज्ञानी मनुष्य अनींद्रिय भी कहलाते हैं। केवलज्ञानी इंद्रियातीत होते हैं, वे आत्मा से, भीतर से देखते हैं, जानते हैं। केवलज्ञानी मनुष्य क्षयोपशम रूप इंद्रियों के नहीं होने के कारण अनींद्रिय कहलाते हैं। हम संसारी जीवों को ज्ञान प्रदान कराने वाली इन्द्रियां होती है।
संसारी जीवों की हिंसा हो सकती है। स्थावर और त्रस जीवों की हिंसा हो सकती है। स्थावर जीवों में तेजस्काय की हिंसा के संदर्भ में आगम में कहा गया है- जो प्रमत्त, प्रमादी, विषयालोलुप अग्निकाय के जीवों की हिंसा करता है, वह दण्ड कहलाता है। अर्थात् वह अपनी आत्मा को दंडित करता है। खाना बनाना, सर्दी में अलाव जलाना, पटाखे जलाना आदि अग्निकाय के जीवों की हिंसा है। कहीं आवश्यक रूप में हिंसा हो सकती है तो कहीं विषय लोलुपता के कारण या मनोरंजन से अनावश्यक हिंसा होती है। आदमी को यह प्रयास करना चाहिए की सभी जीवों के प्रति अहिंसा का भाव हो और अनावश्यक हिंसा से बचने का प्रयास हो।
आयारो में सुन्दर सूत्र दिया गया है कि साधु ने जो प्रमाद स्वरूप अतीत में जो हिंसा जैसा पाप किया है, मैं अब वह नहीं करूंगा, अब मैं अहिंसक बन गया हूं। स्थावरकाय के जीवों की हिंसा को हिंसा माना गया है। भले उनका साक्षात जीवत्व प्रतीत ना हो, जैनिज्म में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति को सजीव बताया गया है। चार शब्द हैं- प्राण, भूत, जीव और सत्व। द्विंद्रीय, त्रिंद्रिय और चतुरेंद्रिय जीवों की संज्ञा प्राण है, वनस्पतिकाय के जीव भूत कहलाते हैं, पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं, शेष पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय सत्व कहलाते हैं। इन सभी के प्रति हम अहिंसा की भावना रखें। गृहस्थ छोटे-छोटे जीवों की हिंसा से बचने का प्रयास करे। जमीकन्द के भक्षण से बचें। आज चतुर्दशी हाजरी का दिन है। परिषद् में इसका वाचन करने से श्रावक-श्राविकाओं को भी हमारी मर्यादा का ज्ञान हो सकता है। पूज्यवर ने हाजरी का वाचन कराते हुए शिक्षामृत प्रदान करवाया। हम साधु-साध्वियों के लिए हिंसा करने के आजीवन त्याग होते हैं। नवदीक्षित साध्वियों ने लेखपत्र का वाचन किया। पूज्यवर ने छहों साध्वियों को 21-21 कल्याणक बख्शाये।
साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने कहा कि नमस्कार महामंत्र को यूनिवर्सल मंत्र के रूप में पहचाना जाता है क्योंकि इसमें नाम और रूप नहीं गुणों की पूजा की गई है। व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है। इसी प्रकार चतुर्विंशति स्तव के प्रथम पद में गुणों की व्याख्या की गई है। महासभा के तत्वावधान में ‘बेटी तेरापंथ की’ के दूसरे सम्मेलन का आयोजन परम पावन आचार्य प्रवर की पावन सन्निधि में हुआ। सम्मेलन की संयोजिका कुमुद कच्छारा ने इसकी विस्तृत जानकारी दी। बेटियों ने अपनी प्रस्तुति दी। आचार्य प्रवर ने पावन प्रेरणा देते हुए फरमाया कि साधु सांसारिक सहयोग से मुक्त होता है, उसमें त्याग व संयम की प्रधानता होती है। गृहस्थ जीवन में तो परिवार के कार्यक्रमों में आना-जाना होता है, साधु जीवन संबंधातीत है। बेटियां अपने परिवार में अच्छे से रहे। परिवार में, बच्चों में, धार्मिक संस्कारों का सिंचन करें। परिवार नशा मुक्त रहे, दामाद लोग भी शांति से रहें, बच्चों को ज्ञानशाला के माध्यम से शिक्षित करें। महासभा का यह कम धार्मिक व सामाजिक दृष्टि से निष्पत्ति कारक बने। पूज्यवर की सन्निधि में होने जा रहे त्रि-दिवसीय उपासक सेमिनार का शुभारंभ पूज्यवर के मंगलपाठ से हुआ। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।