श्रमण महावीर

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

श्रमण महावीर

भगवान् ने मुनि को अपरिग्रही जीवन बिताने का निर्देश दिया। परिग्रह के दो अर्थ हैं-वस्तु और मूर्च्छा। वस्तु का परिग्रह होना या न होना मूर्च्छा पर निर्भर है। मूर्च्छा के होने पर वस्तु परिग्रह बन जाती है और मूर्च्छा के अभाव में वह अपरिग्रह बन जाती है।
परिग्रह के मुख्य प्रकार दो हैं-शरीर और वस्तु। शरीर को छोड़ा नहीं जा सकता। उसके प्रति होने वाली मूर्च्छा को छोड़ा जा सकता है। वस्तु को सर्वथा छोड़ा नहीं जा सकता। उसके प्रति होने वाली मूर्च्छा को छोड़ा जा सकता है। वस्त्र जैसे वस्तु है, वैसे भोजन भी वस्तु हैं। वस्त्र और भोजन चैतन्य की मूर्च्छा के हेतु न बनें, यह सोचकर भगवान् ने कुछ व्यवस्थाएं दीं-
१. जो मुनि जित-लज्ज और जित-परीषह हों वे विवस्त्र रहें। वे पात्र न रखें।
२. जो मुनि जित-लज्ज और जित-परीषह न हों वे एक वस्त्र और एक पात्र रखें।
३. जो मुनि एक वस्त्र से काम नहीं चला सकें वे दो वस्त्र और एक पात्र रखें।
४. जो मुनि दो वस्त्र से काम न चला सकें वे तीन वस्त्र और एक पात्र रखें।
५. जो मुनि लज्जा को जीतने में समर्थ हों किन्तु सर्दी को सहने में समर्थ न हों वे ग्रीष्म ऋतु के आने पर विवस्त्र हो जाएं।
६. वस्त्र रखने वाले मुनि रंगीन और मूल्यवान वस्त्र न रखें।
७. मुनि के निमित्त बनाया या खरीदा हुआ वस्त्र न लें।
दिगम्बर परम्परा आज भी वस्त्र न रखने के पक्ष में है। श्वेताम्बर परम्परा वस्त्र रखने के पक्ष में है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि श्वेताम्बर परम्परा में उत्तरोत्तर वस्त्रों और पात्रों की संख्या में वृद्धि हुई है।
भोजन और विहार
भोजन के विषय में विधान यह था-
१. मुनि रात को न खाए।
२. सामान्यतया दिन में बारह बजे के पश्चात् एक बार खाए।
३. यदि अधिक बार खाए तो पहले पहर में लाया हुआ भोजन चौथे पहर में न खाये।
४. बत्तीस कौर से अधिक न खाए।
५. मादक और प्रणीत वस्तुएं न खाए।
6. माधुकरी-चर्या द्वारा प्राप्त भोजन ले, अपने निमित्त बना हुआ भोजन स्वीकार न करे।
७. लाकर दिया हुआ भोजन स्वीकार न करे।
भगवान् पार्श्व के शिष्यों के लिए परिव्रजन की कोई मर्यादा नहीं थी। वे एक गांव में चाहे जितने समय तक रह सकते थे। भगवान् महावीर ने इसमें परिवर्तन कर नवकल्पी विहार की व्यवस्था की। उसके अनुसार मुनि वर्षावास में एक गांव में रह सकता है। शेष आठ महीनों में एक गांव में एक माह से अधिक नहीं रह सकता।
पात्र
भगवान् महावीर दीक्षित हुए तब उनके पास कोई पात्र नहीं था। भगवान् ने पहला भोजन गृहस्थ के पात्र में किया। भगवान् ने सोचा-यह पात्र कोई माजेगा, धोएगा। यह समारम्भ किसके लिए होगा? मेरे लिए दूसरे को यह क्यों करना पड़े? उन्होंने पात्र में भोजन करना छोड़ दिया। फिर भगवान् पाणि-पात्र हो गए हाथ में ही भोजन करने लगे।