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श्रेष्ठता के पेरामीटर
श्रेष्ठ कौन?
बारह महीनों में बैसाख माह श्रेष्ठ माना जाता है। ऐसा बताया जाता है कि त्रेता युग का प्रारंभ इसी मास में हुआ था। देवर्षि नारदजी के अनुसार – विद्याओं में वेद, मंत्रों में प्रणव, वृक्षों में कल्पवृक्ष, धेनु में कामधेनु, देवताओं में विष्णु, वैष्णवों में शिव, वर्णों में ब्राह्मण, प्रियों में प्राण, नदियों में गंगा, तेजों में सूर्य, अस्त्र-शस्त्रों में चक्र, धातुओं में स्वर्ण, रत्नों में कौस्तुभ मणि उत्तम हैं, वैसे ही महीनों में बैसाख उत्तम है। इसे पढ़ते ही मेरे मन में यह विचार आया कि यदि इसमें एक बिंदु और जोड़ दिया जाए, तो शायद अत्युक्ति नहीं होगी – वह है, 'संतों में श्रेष्ठ हैं आचार्य महाश्रमण।'
मेरे इस चिंतन पर परम पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने पूर्व में ही मुहर लगा दी थी जब उनके समक्ष यह जिज्ञासा आई कि संत कैसा होना चाहिए? प्रत्युत्तर में उन्होंने फरमाया – 'महाश्रमण मुदित जैसा।' ‘महाश्रमण अष्टकम्’ में आदरास्पद शासनमाता साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने इस प्रसंग का उल्लेख भी किया है।
सन् 2014 के चातुर्मास में दिगंबर मुनि तरुणसागरजी ने दिल्ली की विशाल सभा में, सभी जैन संप्रदायों की उपस्थिति में कहा था – 'हम तो सब श्रमण हैं और ये महाश्रमण हैं।' उनके इस कथन पर पूरा हॉल 'अर्हम्' ध्वनि से गुंजायमान हो उठा।
मूर्तिपूजक गणिवर्य आदर्शरत्नसागरजी ने अपने अभिभाषण में कहा – मेरे मन में दो व्यक्तियों के प्रति अत्यंत आदरभाव है – एक हैं दिगंबर आचार्य विद्यासागरजी और दूसरे हैं आचार्यश्री महाश्रमणजी, जिनका जीवन ही प्रेरणा है। इन्हें प्रवचन करने की आवश्यकता ही नहीं, इनके आचरण और व्यवहार में समता का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। ये किसी भी कार्य में जल्दबाज़ी नहीं करते। हर क्रिया को शांतचित्त और भावपूर्वक करते हैं। ऐसे गरिमामय युगपुरुष का अवतरण धरती पर यदा-कदा ही हो पाता है। सच ही कहा है किसी कविचेता ने इन पंक्तियों में–
सदियों धरती तप करे, वर्षों करे पुकार।
महाश्रमण से संत का, तब होता अवतार।।
यही नहीं, माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक कार्यक्रम में गुवाहाटी जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने एक बड़ा होर्डिंग देखा, जिसमें आचार्यश्री महाश्रमण का चित्र था। उसे देखते ही वे गाड़ी से उतरे और वंदन मुद्रा में प्रणत होते हुए बोले – मैं इस त्याग और संयम की प्रतिमूर्ति को नमन करता हूं, प्रणाम करता हूं।
प्रणम्य कौन?
तब मन में प्रश्न उठा – महातपस्वी आचार्य महाश्रमण का इतना माहात्म्य क्यों? जन-जन के मन में उनके प्रति इतना आकर्षण क्यों? समाधान की लहरें भीतर में उठीं – जिनके हृदय में आसमान जैसी विशालता, पैरों में पवन-सी गतिशीलता, वाणी में आगम सूक्तों की प्रतिध्वनियां अनुगूंजित हों, चेहरे पर चिन्मय चेतना की मधुर मुस्कान निरंतर प्रवाहित हो, भाग्य-पुरुषार्थ-प्रज्ञामयी रत्नत्रयी के संवाहक हों, अंतःकरण में ज़मीं पर खड़े रहकर नभ को छूने की अदम्य लालसा हो, धैर्य-धर्म-पुण्य और प्रताप सहचर हों, मन-वचन-काया एवं कार्यजा क्षमता एकदिशागामी या ऊर्ध्वलक्ष्यगामी हो, मिताहार-मितभाषण-मैत्री-प्रतिक्रिया विरति और भावक्रिया की उपसंपदाएं आत्मसात हों, आत्मा की सतत रक्षा करनी है – इस भगवद्वचन की अहर्निश अनुप्रेक्षा हो, प्रतिपल अहोविहार में रमण करते हों, दिल और दिमाग में 'शुभं भूयात् – कल्याणं भूयात् – मंगलं भूयात्' की मंगलभावनाएं भावित हों, आत्मबोध–जगतबोध–जनबोध–जीवनबोध–संयमबोध–वैराग्यबोध–आचारबोध–व्यवहारबोध–संस्कारबोध–विचारबोध–जैनप्रबोध–तेरापंथप्रबोध–श्रावकसंबोध–मानवप्रबोध की विशिष्ट अर्हता हो – वही सबके लिए प्रणम्य और वरेण्य होता है।
सुना, पढ़ा और देखा भी है कि जिन-जिन अंधियारे गलियारों से वे गुज़रते हैं, वहां मानवीय विश्वास की आलोकमयी किरणें बिछ जाती हैं। वे लोगों के रोम-रोम में बस गए हैं। जिसे उन्होंने दृष्टि उठाकर देखा, उसके प्रश्न समाहित हो गए। जिसे एक बार संबोधित किया, उसकी उखड़ती आस्था जम गई। पांव-पांव चलकर धरती को नापा तो उसके हर हिस्से से भावात्मक रिश्ता कायम हो गया। अपने क्रियाकलापों से, चिंतन से उन्होंने अनेकानेक फौलादी कहानियां रचीं। सर्वत्र आत्मीयता का प्रसाद बांटा। इसीलिए वे सबके अपने बन गए हैं। आशीर्वाद की मुद्रा में उठे हाथ आगंतुकों के मन को तुष्टि प्रदान कर रहे हैं तथा सुख-शांति-समृद्धि-समत्व पाने का संकेत दे रहे हैं।
श्रद्धेया महाश्रमणीजी की इन पंक्तियों से उक्त पहलुओं की पुष्टि होती है। उन्होंने लिखा –
'टिकते चरण जहां गुरुवर के, धरा तीर्थ बन जाती है।
नैतिकता का नाद गूंजता, बिना तेल जलती बाती है।।
दूसरी बात– मैंने 29 जनवरी 2024 के दैनिक भास्कर में एक संवाद पढ़ा – हाई आईक्यू वाले में तीन क्वालिटीज़ होती हैं – एनालिटिकल थिंकिंग, प्रॉब्लम सॉल्विंग, लॉजिकल रीज़निंग। स्टीव जॉब्स, जेफ बेज़ोस, मार्क ज़ुकरबर्ग, एलन मस्क, लैरी पेज, बिल गेट्स आदि महानुभाव हाई आईक्यू की गणना में आते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में जब मैंने आचार्यश्री महाश्रमण को देखा, समझा और चिंतन किया, तो मुझे लगा कि ये तीनों गुण तो आपश्री में स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहे हैं। यद्यपि आचार्यश्री का कार्यक्षेत्र उनसे भिन्न है, तथापि उनकी इन विशिष्टताओं की सुगंध को यत्र-तत्र-सर्वत्र अनुभव किया जा सकता है। स्वल्प चर्चा में ही ये चित्रांकित हो सकती हैं –
1. एनालिटिकल थिंकिंग –
आचार्यवर ऋतंभरा प्रज्ञा के धारक हैं। इसलिए वे हर बिंदु, हर पहलू, हर घटना, हर नियम, हर मर्यादा, हर कथ्य, हर तथ्य, हर चर्या का सूक्ष्मता से अवलोकन करते हैं। क्या, क्यों, कब, कैसे, कहां, कितनी – ये प्रश्न उनके मस्तिष्क में सदैव सक्रिय रहते हैं। वे संदर्भित समस्या का समाधान आलोड़न-विलोड़न द्वारा प्रस्तुत कर देते हैं। उनका मतिज्ञान विशद है, फलतः ईहा-अपोह-मार्गणा-गवेषणा के माध्यम से वे मूल तक पहुंच जाते हैं। गंभीर श्रुतज्ञान और प्रवर मेधा से वे समानांतर समाधान भी खोज लेते हैं। वे आत्माराधना और श्रुतोपासना – इन दो सशक्त आलंबनों से सुसज्जित हैं। उनका माइंडफुलनेस सधा हुआ है।
सन् 2021 के भीलवाड़ा चातुर्मास में एक सामूहिक गोष्ठी में चर्चा चली – क्या साध्वी आचार्य बन सकती है? पूज्यवर ने जिस ढंग से इस विषय को आगमिक, श्रुतानुश्रुत, पारंपरिक, आधुनिक, व्यावहारिक और तार्किक दृष्टि से प्रस्तुत किया, वह चित्त को आंदोलित करने वाला था।
2. प्रॉब्लम सॉल्विंग –
आज समस्याएं चारों ओर व्याप्त हैं। व्यक्ति, परिवार, समाज, देश और विदेश – सभी इसकी चपेट में हैं। फलतः तन-मन-कर्म-चिंतन और भावधारा सभी अस्वस्थ हो गए हैं। ऐसे संकट में सबकी निगाहें अध्यात्म शिखर पुरुषों की ओर हैं। आचार्यश्री अपनी भूख, नींद, कार्यों को गौण मानकर, लोककल्याण हेतु सतत प्रयासरत हैं। व्यक्तिगत संवाद, प्रवचन, संगोष्ठी, साहित्य सर्जना और उनकी अहिंसा यात्रा – नैतिकता का प्रसार, नशामुक्ति, सद्भावना – इनके माध्यम से उन्होंने शांति का मार्ग प्रशस्त किया।
3. लॉजिकल रीज़निंग –
उनका मानना है – 'ज्ञानार्जन में हो तर्क, पर आज्ञा-आराधन में रहें सतर्क।' वे बाल्यकाल से ही जिज्ञासु रहे हैं। हर विषय की गहराई में जाकर समझने का प्रयास करते हैं। जब तक कोई बात आत्मसात नहीं होती, वे प्रश्न करते रहते हैं। मैंने स्वयं देखा है – वे तर्क में उलझाते नहीं, पर अपनी शंका का समाधान अवश्य खोजते हैं।
बुद्धि के आठ गुण – शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, ऊह, अपोह, अर्थविज्ञान और तत्वज्ञान – उनमें विद्यमान हैं। इसी कारण वे नवीन तथ्यों के साथ-साथ पुरानी मान्यताओं की विवेचना कर, निष्कर्ष निकालने में सक्षम हैं।
अंत में केवल यही भाव-सुमन अर्पित कर सकती हूं –
यह चिर वसंत फूले अनंत, जीवन शाखा पर स्वर्ण फूल।
हम शीश चढ़ाते रहें सदा, शीतल चंदन सी चरण धूल।।