साँसों का इकतारा
(72)
तुम्हारा नाम ले पंगु हिमालय-शिखर पर चढ़ता।
शिथिल संकल्प में आती तुम्हारे नाम से दृढ़ता।।
देव! तुम प्राण हो मेरे स्वयं में शून्य हूँ मैं तो
बने जब नाथ तुम मेरे स्वयं ही धन्य हूँ मैं तो
अबोली प्रेरणा पाकर विपुल उत्साह है बढ़ता।।
प्रभो! तुम दीप ज्योतिर्मय निपट मैं एक बाती हूँ
नहीं वैशिष्ट्य कुछ मुझमें तुम्हीं से ज्योति पाती हूँ
तुम्हारी हर कहानी को मनुज क्या देव भी पढ़ता।।
लहर मैं एक पानी की विशद तुम आर्य! जलनिधि हो
नहीं कुछ जानती मैं तो तुम्हीं आकर स्वयं सुधि लो
तुम्हारी दृष्टि का जादू नए इतिवृत्त भी गढ़ता।।
(73)
देव! बतला दो रहा है दूर कितना साध्य मेरा।
प्रश्न उठता है सहज ही हो सकेगा कब सवेरा।।
चल रही हूँ देवते! मैं साधना पथ पर निरंतर
है अभी अज्ञात मंजिल मार्ग का अवशेष अंतर
सतत गति से श्रांत होकर भी नहीं क्षण भर रूकूँगी
प्राप्त करके ही रहूँगी मैं यहाँ शाश्वत बसेरा।।
गहन कुंजों में वनों में झुरमुटों में घूमती हूँ
पूर्ण करने खोज अपनी कल्पना में झूमती हूँ
दे सकी कितना बताओ स्वप्न को आकार अब तक
राह की सब आपदाएँ हो सकेंगी पार कब तक
देख तो दर पर तुम्हारे मैं खड़ी हूँ डाल डेरा।।
(74)
कर सकती जितना अवगाहन नभ का पांखे
वे विशाल उससे उसको कैसे मानेंगी?
तुमने काली रातों में आलोक बिछाया
इस कारण हर पथिक तुम्हारा आभारी है
जीवन और मरण की सच्ची परिभाषा दी
सच मानो इन उपकारों से जग भारी है
इंद्रधनुष से विविध रूप हैं देव! तुम्हारे
तब बोलो ये आँखें कैसे पहचानेंगी।।
जहर निगलकर तुमने सुधा पिलाई सबको
क्यों ना मानव तुम्हें देवता कहकर गाए।
रेगिस्तानी उपवन को सरसब्ज बनाया
कैसे उसमें ये सतरंगे फूल खिलाए
जीवन के सब राज खोल रख दिए सामने
पर उनको कुंठित प्रतिभा कैसे जानेगी।।
सपनों की दुनिया में कब से खोज रही हूँ
पा जाएँ तुमको प्यासे ये नयन हमारे
चाँद-सितारों से चमकीला नीला अंबर
देख न पाए कहीं तुम्हारे दिव्य नजारे
अब बोलो इस आस्था को कैसे समझाएँ
तुमको पाने दुनिया का कण-कण छानेगी।।
(क्रमशः)