संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह

(2) अध्रुवे नाम संसारे, दुःखानां काममालये।
परिभ्राम्यन्नयं प्राणी, क्लेशान् व्रजत्यतर्कितान्।।

यह संसार अधु्रव-अशाश्वत है और दुःखों का आलय है। इसमें परिभ्रमण करता हुआ प्राणी अतर्कित क्लेशों को प्राप्त होता है।

महावीर ने कहा-संसार दुःख है। बुद्ध ने भी भिक्षुओं को कहा-‘भिक्षुओ! दुःख है, इसका अनुभव करो।’ महावीर और बुद्ध दुखी नहीं थे, जिस अर्थ में सामान्य मानव है। किंतु दुःख की वास्तविकता उनके पास थी। उन्होंने देखा-उत्पन्न होना दुःख है, फिर मरना दुःख है। उत्पत्ति और मृत्यु के मध्य बुढ़ापा, रोग, शोक, प्रिय का वियोग, अप्रिय का संयोग ये भी दुःख है। दुःख का कारण है और उसके नाश का उपाय है। वे दुःख से कतराए नहीं, किंतु जागे और दुःखोच्छेद के लिए कटिबद्ध हो गए। दुःख है-यह सामान्य व्यक्ति का भी अनुभव है, किंतु जागरण नहीं है। दुःख सुख में बदल जाएगा, इसी आशा से मानव घसीटा चला जा रहा है। लेकिन आशा कभी सफल नहीं हुई। न पहले किसी की हुई है और न होगी। जो सुख आता हुआ दिखाई दे रहा है, जैसे ही आया, फिर विषाद का क्रम शुरू हो जाता है। धर्म वह खोज है जिससे आदमी सदा-सदा के लिए दुःख से मुक्त हो जाए। वह बाहर सुख की खोज नहीं करता। बाहर तो जन्मों-जन्मों में देखते आए हैं, उससे तो सुख मिला नहीं। इसलिए अब भीतर की यात्रा शुरू करना है।

(3) पुनर्भवी स्ववृत्तेन, विचित्रं धरते वपुः।
कृत्वा नानाविधं कर्म, नानागोत्रासु जातिषु।।

जीव अपने आचरण से बार-बार जन्म लेता है और विचित्र प्रकार के शरीरों को धारण करता है। वह विभिन्न प्रकार के कर्मों का उपार्जन कर विभिन्न गोत्र वाली जातियों में उत्पन्न होता है।

शरीर के आधार पर जीवों के छह भेद किए गए हैं। वे ये हैं-
(1) पृथ्वी है काय जिनकी, वे पृथ्वीकायिक जीव।
(2) अप् अर्थात् पानी है काय जिनकी वे अप्कायिक जीव।
(3) तैजस अर्थात् अग्नि है काय जिनकी वे तैजसकायिक जीव।
(4) वायु है काय जिनकी वे वायुकायिक जीव।
(5) वनस्पति है काय जिनकी वे वनस्पतिकायिक जीव।
(6) त्रसकायिक जीव-गमन-आगमन करने वाले जीव।

इंद्रियों के आधार पर जीवों के भेद-
(1) एक इंद्रिय वाले जीव। (2) दो इंद्रिय वाले जीव। (3) तीन इंद्रिय वाले जीव। (4) चार इंद्रिय वाले जीव। (5) पाँच इंद्रिय वाले जीव।
(क्रमशः)