मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

मनोनुशासनम्

प्रतिसंलीनता

मानसिक चंचलता कुछ निमित्तों से होती है। उनमें पहला निमित्त इंद्रियाँ हैं। वे जब बाह्य जगत् के साथ संपर्क स्थापित करते हैं, तब मन को चंचल बनाते हैं, इसीलिए साधना की भूमिका में उनको अंतर्मुखी करने का प्रयत्न किया जाता है। उनके अंतर्मुख होने का अर्थ है-विषयों के साथ संपर्क स्थापित न करना। किंतु इस जगत् में यह कब संभव है कि हमारे इंद्रिय विषयों से सर्वथा असम्पृक्त रह सकें? इस कोलाहलमय जगत् में क्या यह संभव है कि कान हो और शब्द सुनाई न दे? इस रूपमय जगत् में क्या यह संभव है कि आँख हों और रूप को न देखे? वायु के साथ प्रवाहित होकर आने वाली गंध को कैसे रोका जा सकता है? रस और स्पर्श के संपर्क को भी सर्वथा नहीं रोका जा सकता। इस स्थिति में हम विषयों से असम्पृक्त एक सीमा में ही रह सकते हैं।
क्या इस स्थिति में हम मानसिक चंचलता को रोकने में सफल हो सकते हैं? नहीं हो सकते। किंतु मनुष्य का शक्तिशाली मस्तिष्क नहीं को हाँ मे बदल देता है। उसने एक विकल्प खोज निकाला कि मन की स्थिरता का अभ्यास करने वाला व्यक्ति विषयों के संपर्क से जितना बच सके, उतना बचे और न बच सकने की स्थिति में वह उनके प्रति अनासक्त रहे। विषयों के असंपर्क और अनिवार्यरूपेण प्राप्त विषयों के प्रति अनासक्ति-ये दोनों मिलकर इंद्रिय प्रतिसंलीनता की प्रक्रिया को पूरा करते हैं।
अभ्यास की अपरिपक्व दशा में विषयों से बचाव करना बहुत उपयोगी है और जैसे-जैसे एकाग्रता का अभ्यास परिपक्व होता जाए, वैसे-वैसे विषयों से बचने की अपेक्षा उनके प्रति होने वाली आसक्ति से बचना बहुत आवश्यक है। विषयों से बचने की प्रवृत्ति हो और अनासक्ति का भाव न हो, उस स्थिति में आंतरिक पवित्रता पर बाह्याचार की विजय होती है। विषयों से बचने का प्रयत्न अनासक्ति की साधना का पहला चरण है। इसलिए उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। सिद्धि का द्वार इन दोनों के सामंजस्य होने पर ही खुलता है। आसक्ति के कारण व्यक्ति के मन में क्रोध, अभिमान, माया और लोभ के भाव उत्पन्न होते हैं और वे मन को व्यग्र बनाते हैं। उन पर विजय पाए बिना कोई भी व्यक्ति एकाग्रता को परिपुष्ट नहीं बना सकता। और इंद्रियों को भी अंतर्मुखी नहीं बना सकता। कषाय प्रतिसंलीनता के चार साधन हैं-
(1) क्रोध-निवृत्ति के लिए उपशम भावना का अभ्यास।
(2) मान-निवृत्ति के लिए मृदुता का अभ्यास।
(3) माया-निवृत्ति के लिए ऋजुता का अभ्यास।
(4) लोभ-निवृत्ति के लिए संतोष-अपनी आंतरिक समृद्धि के निरीक्षण का अभ्यास।
इन प्रतिपक्ष भावनाओं का पुनः-पुनः अभ्यास करने से कषाय अपने हेतुओं में विलीन हो जाता है।
आंतरिक अनुभूति और शून्यता की गहराई में जाने के लिए सकांतवास बहुत मूल्यवान है। कोलाहलमय वातावरण में हम दूसरों को सुनते हैं किंतु अपने अंतर की आवाज नहीं सुन पाते। रंगीन वातावरण में हम दूसरों को देखते हैं किंतु इस शरीर में विराजमान चिन्मय प्रभु को नहीं देख पाते। एकांतवास में अपने अंतःकरण की आवाज सुनने और अपने प्रभु से साक्षात्कार करने का सुंदर अवसर मिलता है। उससे हमारा मन बाह्य संपर्कों से मुक्त होकर अपने शक्ति-स्रोत में विलीन हो जाता है।
(17) आत्मानं प्रत्यनुप्रेक्षा स्वाध्यायः।।
(17) आत्मा के विषय में अनुप्रेक्षा (चिंतन, मनन) करने को स्वाध्याय कहा जाता है।

स्वाध्याय

योग के आचार्यों ने परमात्म-प्राप्ति के दो साधन माने हैं-ध्यान और स्वाध्याय। उन्होंने लिखा है-स्वाध्याय करो और फिर ध्यान। ध्यान करो और फिर स्वाध्याय। इस प्रकार स्वाध्याय और ध्यान का अभ्यास करने से परमात्मा प्रकट हो जाता है-
स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां, ध्यानात् स्वाध्यायमामनेत्।।
स्वाध्याय-ध्यान-संपत्त्या, परमात्मा प्रकाशते।।
स्वाध्याय का शाब्दिक अर्थ है-पढ़ना। साधना के संदर्भ में केवल पढ़ना स्वाध्याय नहीं है किंतु आत्मा के विषय में जानना, विचार करना, मनन करना स्वाध्याय है। यह ध्यान का मूल बीज है। जिसका आत्मविचार स्पष्ट नहीं है, जिसे ‘मैं कौन हूँ’ इस विषय की स्पष्ट धारणा नहीं है और जिसे आत्मा और शरीर के भदे-ज्ञान का बोध नहीं है, वह ध्यान की उत्कृष्ट भूमिकाओं में कैसे प्रवेश पा सकता है? इसलिए ध्यान के मूल बीज के रूप में स्वाध्याय का बहुत बड़ा महत्त्व है।
(18) चेतोविशुद्धये मोहक्षयाय स्थैर्यापादनाय विशिष्टसंस्काराधानं भावना।।
(19) अनित्य-अशरण-भव-एकत्व-अनयत्व-अशौच-आस्रव-संवर-निर्जरा- धर्म-लोक-संस्थान-बोधिदुर्लभता।।
(20) मैत्री प्रमोद-कारुण्य मध्यस्थताश्च।।
(21) उपशमादिदृढ़भावनया क्रोधादीनां जयः।।
(18) चित्त की शुद्धि, मोहक्षय तथा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की वृत्ति को स्थिर करने के लिए जो विशिष्ट संस्कार आहित (स्थापित) किए जाते हैं, उनका नाम भावना है।
(19) भावनाएँ बारह हैं-
(1) अनित्य, (2) अशरण, (3) भव, (4) एकत्व, (5) अन्यत्व, (6) अशौच, (7) आस्रव, (8) संवर, (9) निर्जरा, (10) धर्म, (11) लोक-संस्थान, (12) बोधि-दुर्लभता।
इसका बार-बार चिंतन करने से मोह क्षीण होता है, चित्त शुद्ध होता है-संतुलित होता है और कर्तव्य में स्थिरता प्राप्त होती है।
(20) चार भावनाएँ और हैं-
(1) मैत्री, (2) प्रमोद, (3) करुणा, (4) मध्यस्थता।
इनसे आत्मौपम्य, गुण-ग्रहण-वृत्ति, मृदुता और तटस्थता का विकास होता है।
(21) उपशम आदि की दृढ़ भावना करने से-उनका बार-बार दृढ़ अभ्यास करने से क्रोध आदि पर विजय प्राप्त होती है।

भावना

‘कंटकात् कंटकमुद्धरेत्’-काँटे से काँटा निकालने की नीति साधना के क्षेत्र में भी लागू होती है। चित्त को वासनाओं से मुक्त करना साधक का लक्ष्य होता है, पर पहले ही चरण में दीर्घकालीन वासनाओं को एक साथ निर्मूल नहीं किया जा सकता। उन्हें निरस्त करने के लिए नई वासनाओं की सृष्टि करनी होती है। वे नई वासनाएँ यथार्थपरक होती हैं, इसलिए उनका असत् से संबंधित वासनाओं पर दबाव पड़ता है और वे उनसे अभिभूत हो जाती हैं।
वासना का ही दूसरा नाम भावना है। शास्त्रीय ज्ञान या शब्द ज्ञान का जो सहारा लिया जाता है, वह वासना है। इसे भावना, जप, धारणा, संस्कार, अनुप्रेक्षा और अर्थचिंता भी कहा जाता है और ये सब स्वाध्याय के ही प्रकार हैं।
जैन साधना पद्धति में ‘भावनायोग’ शब्द का व्यवहार हुआ है। भावना से मन आत्मा या सत्य से युक्त होता है, इसलिए यह योग है। भावना में ज्ञान और अभ्यास इन दोनों के लिए अवकाश है।
भावनाओं के प्रकार असंख्य हो सकते हैं। उन्हें किसी वर्गीकरण में नहीं बाँधा जा सकता, फिर भी दिशा-निर्देश के रूप में एक-दो वर्गीकरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं। प्रथम वर्गीकरण में बारह भावनाओं का उल्लेख है-
(1) अनित्य, (2) अशरण, (3) भव, (4) एकत्व, (5) अन्यत्व, (6) अशौच, (7) आस्रव,
(8) संवर, (9) निर्जरा, (10) धर्म, (11) लोक-संस्थान, (12) बोधि-दुर्लभता।
अनित्य भावना
जितने संयोग हैं, उनका अंत वियोग में होता है-संयोग विप्रयोगाऽन्ताः-फिर भी चिर संपर्क के कारण मनुष्य संयोग को शाश्वत मान बैठता है और जब उसका वियोग होता है, तब वह उसके लिए आकुल हो उठता है। यह आकुलता, दुःख और ताप वस्तु के वियोग से नहीं होता किंतु उसके संयोग के प्रति शाश्वत की भावना होने से होता है। अनित्य भावना का प्रयोजन चित्त में (संयोग और वस्तु की नश्वरता के प्रति) अशाश्वतता की भावना को पुष्ट बनाए रखता है। इस भावना का अभ्यासी साधक वियोग को नहीं रोक सकता किंतु उससे प्रवाहित होने वाली दुःख की धारा को रोक सकता है।
अशरण भावना
मनुष्य अपूर्ण है। वह अपूर्ण है, इसलिए बाह्य वस्तुओं के द्वारा पूर्ण होने का प्रयत्न करता है। उसे दुःख, अशांति, दरिद्रता आदि अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वह उस संघर्ष में विजयी होने के लिए दूसरों का सहारा चाहता है, त्राण और शरण की अपेक्षा रखता है। सामाजिक जीवन में सहारा, त्राण और शरण मिलती भी है किंतु यह तात्कालिक सत्य है। त्रैकालिक सत्य यह है कि अपने पुरुषार्थ पर आदमी निश्चित रूप से भरोसा कर सकता है, इसलिए वस्तुतः सहारा, त्राण या शरण अपने पुरुषार्थ में ही है, अन्यत्र नहीं है। इस अंतिम सच्चाई के आधार पर स्वयं में स्वयं का त्राण खोजना और दूसरों के त्राणदान में ऐकान्तिक व आत्यंतिक कल्पना का करना-अशरण भावना है। इस भावना से भावित मनुष्य का कर्तृत्व प्रबल हो उठता है और दूसरों के द्वारा विश्वासघात होने पर उसका धैर्य विचलित नहीं होता।
भव भावना
इस दुनिया में सब प्राणी समान नहीं हैं और सब मनुष्य भी समान नहीं हैं। बुद्धि, वैभव और क्षमता भिन्न-भिन्न हैं। जिसके पास ये साधन होते हैं, उसका मन गर्व से भर जाता है और जिसके पास ये नहीं होते हैं, उसमें हीन भावना पनपती है। इस दोहरी बीमारी की चिकित्सा भव-भावना है। यह संसार परिवर्तनशील है। इसमें कोई भी व्यक्ति निरंतर एक स्थिति में नहीं रहता। एक जन्म में एक व्यक्ति अनेक स्थितियों का अनुभव कर लेता है। अनेक जन्मों में तो वह न जाने क्या-क्या अनुभव करता है। जो व्यक्ति इस परिवर्तन की भावना से भावित होता है, उसके मन में गर्व या हीन भावना की बीमारी पैदा नहीं होती।

(क्रमशः)