शस्त्र का प्रत्याख्यान और शास्त्र का करें स्वाध्याय : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

शस्त्र का प्रत्याख्यान और शास्त्र का करें स्वाध्याय : आचार्यश्री महाश्रमण

ज्ञान की गंगा बहाने वाले, आगमवेत्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आर्षवाणी की अमी वर्षा कराते हुए फरमाया कि जैन वांग्मय में अनेक आगम शाश्वत हैं। तेरापंथ धर्मसंघ में 32 आगमों को महत्वपूर्ण रूप से स्वीकार किया गया है। ये आगम बत्तीसी है- ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद और एक आवश्यक। ग्यारह अंग स्वतः प्रमाणस्वरूप है। इनमें पांचवां अंग भगवती सूत्र तो कलेवर-मात्रा की दृष्टि से विशालकाय आगम है। ग्यारह अंगों में प्रथम अंग आयारो (आचारांग सूत्र) का मैं व्याख्यान प्रारम्भ करने जा रहा हूं। यह पहला श्रुतस्कन्ध, कुल नौ अध्ययनों वाला है। इसमें सातवां अध्ययन लुप्त है, अप्राप्त है। इसके नौवें अध्ययन में भगवान महावीर की जीवनी संक्षेप में प्राप्त होती है। इसका पहला अध्ययन है- शस्त्र-परिज्ञा।
आदमी हिंसा के लिए शस्त्र का प्रयोग करता है। दो शब्द हैं- शास्त्र और शस्त्र। शास्त्र का स्वाध्याय और शस्त्र का प्रत्याख्यान करना चाहिए। जिसमें शासन, अनुशासन की बात हो और जो त्राण शक्ति वाला होता है, वह शास्त्र होता है। शास्त्र शासन का साधन हो सकता है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने आयारो का संस्कृत भाषा में भाष्य लिखा है। भाष्य से भी अनेक जानकारियां मिल सकती है। आयारो के प्रथम अध्याय के पहले सूत्र में पूर्वजन्म की चर्चा की गई है।
आत्मवाद, कर्मवाद, लोकवाद जैन दर्शन के महत्वपूर्ण सिद्धान्त हैं। इनमें भी आत्मवाद सबसे महत्वपूर्ण है। आत्मा है तभी अध्यात्म की साधना का महत्त्व है। आत्मा शाश्वत है, पुण्य-पाप का फल है तो साधुपन लेने का औचित्य है। आत्मा है ही नहीं तो फिर साधुपन लेनी की कोई अपेक्षा नहीं रह जाती। आत्मा है तो श्रावकत्व भी है। सुधर्मा स्वामी भगवान महावीर के अनन्तर उत्तराधिकारी बने थे। सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू को बता रहे हैं कि मैंने भगवान से ऐसा सुना है कि कई मनुष्य ऐसे होते हैं, जिन्हें स्वयं पता नहीं है कि मैं कहां से आया हूं? उन्हें पिछले जन्म का ज्ञान नहीं होता है। कईयों को न पूर्वजन्म का पता लगता है न पुनर्जन्म का पता होता है। कुछ को यह पता हो सकता है पिछले जन्म का पता होने के तीन कारण हैं-
1. स्व स्मृति
2. पर व्याकरण
3. दूसरों के पास सुनकर।
पिछले जन्म की स्मृति के लोप होने का कारण है कि जब जन्म होता है तब दुःख होता है, और पिछले जन्म में मृत्यु हुई थी तब भी जीव को दुःख होता है। दुःख से चेतना सम्मूर्छित हो जाती है, चेतना पर आवरण सा आ जाता है इसलिए पूर्वजन्म की स्मृति नहीं होती। ‘रूप रो गर्व’ की आख्यान का श्रवण कराते हुए पूज्यवर ने फरमाया कि चक्रवर्ती सनत्कुमार की सुंदरता ऐसी थी कि देवकुमार भी पीछे रह जाते। देव रूपी ब्राह्मणों द्वारा उसके रूप को देख संतुष्ट होने पर सनत्कुमार को अहंकार आ गया। देवों के बताने पर शरीर की स्थिति देखकर आत्म कल्याण की भावना जागृत हो गई कि मुझे तो अब साधना करनी है, वैराग्य जाग गया कि मुझे तो पावन को प्राप्त करना है। साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने कहा कि तीर्थंकर भक्ति में रचित स्तुतियों में एक महत्वपूर्ण स्तुति है- चतुर्विशंति स्तव, जो लोगस्स रूप में प्रचलित है। यह एक महामंत्र है, महाशक्ति है। जैन शासन में इसको श्रद्धा से स्वीकार किया गया है। मंगलों में पहला मंगल तीर्थंकर होते हैं। दूसरा मंगल है- स्तुति। स्तवन और स्तुति मंगल कहलाते हैं। लोगस्स दो मंगलों के योग से बना है। इसके स्मरण से आत्मविशुद्धि होती है। लोगस्स पाठ आवश्यक सूत्र का एक अंग है। आवश्यक सूत्र जैन साधना का प्राण है। पूज्यवर की पावन सन्निधि में जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित 'शासनश्री' मुनिश्री धर्मचन्दजी 'पीयूष' की जीवनी ‘मेरी धर्मयात्रा’ का लोकार्पण किया गया। टीपीएफ द्वारा 8वां नेशनल डॉक्टर्स कॉन्फ्रेंस कार्यक्रम पूज्यवर की पावन सन्निधि में शुरू हुआ। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।