पूर्व कृत पुण्य के योग से प्राप्त है अनुकूलता का संसार : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

पूर्व कृत पुण्य के योग से प्राप्त है अनुकूलता का संसार : आचार्यश्री महाश्रमण

आत्मरमण के साधक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवती सूत्र के माध्यम से आगम वाणी की अमृत वर्षा कराते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र के 34वें शतक में बताया गया है- हमारी दुनिया में अनन्त जीव हैं। सिद्ध जीव तो संसार से मुक्त हैं। संसारी जीव जन्म-मरण करते हैं अर्थात् पुनर्जन्म का सिद्धान्त है। दो विचारधाराएं- आस्तिक और नास्तिक हैं। आत्मा है, पुण्य-पाप है, पुनर्जन्म है, मोक्ष है आदि को मानने वाले आस्तिक व्यक्ति हो जाते हैं। इनको नहीं मानने वाले नास्तिक हो जाते हैं। आस्तिक विचारधारा में आत्मा और शरीर को अलग-अलग माना गया है। जीव अन्य है, शरीर अन्य है। भेदविज्ञान की धारा को आस्तिक विचारधारा में स्वीकार किया गया है। नास्तिक विचारधारा में शरीर और जीव एक है। आस्तिक विचारधारा में पुनर्जन्म को स्वीकारा गया है। जैसे आदमी पुराना कपड़ा छोड़ नया वस्त्र धारण कर लेता है, वैसे ही जीव वर्तमान स्थूल शरीर को छोड़ नया शरीर धारण कर लेता है। सूक्ष्म और सूक्ष्मत्तर जीव तो संसारी अवस्था में साथ में ही रहता है।
पुनर्जन्म के अनेक नियम हैं। अगले जन्म में ज्ञान व दर्शन साथ में जाता है, चारित्र साथ नहीं जाता है। यहां एक नियम बताया गया है कि जीव एक योनि से दूसरी गति में जाता है, जिसे अन्तराल गति कहते हैं। अन्तराल गति के दो प्रकार हैं- ऋजुगति व वक्रगति। पृथ्वीकाय के जीवों की अन्तराल गति एक समय, दो समय अथवा तीन समय वाली हो सकती है। एक सैकंड में असंख्य समय बीत जाता है। काल की लघुत्तम इकाई समय है। भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण हुआ, मोक्ष में गए। अल्प समय में उनकी आत्मा मोक्ष में एक समय में विराज गई। जीव कहां मरता है और कहां पैदा होता है, इस पर निर्भर करता है कि आत्मा को कितना मोड़ लगेगा, कितना समय लगेगा। पर चार समय से ज्यादा समय अन्तराल गति में नहीं लगता है। अल्प समय में आत्मा अगले जन्म में पहुंच जाती है।
हम चिंतन करें कि हमारा अगला जन्म कहां होगा। वर्तमान में हमें जो अनुकूलता प्राप्त है, वह तो हम पूर्व पुण्य को भोग रहे हैं। आगे के लिए हम क्या कर रहें हैं? धर्म के लिए समय निकालते हैं या नहीं। आगे दुर्गति में जाना न हो जाए। हमें पुनर्जन्म से प्रेरणा लेनी चाहिए कि हम आगे के लिए भी कुछ धर्म-अध्यात्म की साधना करें। मुख्य प्रवचन के पश्चात आचार्य प्रवर ने गुरुदेव श्री तुलसी की कृति ‘चन्दन की चुटकी भली’ में से चक्री सनत्कुमार पर आधारित 'रूप रो गर्व' आख्यान के माध्यम से प्रेरणा दी कि मान, अहंकार को मिटाने वाला महाजन होता है।
शरीर हर व्यक्ति के पास है, शरीर की सुंदरता भी हो सकती है, पर यह नश्वर है। ऊपर से यह शरीर सुंदर है पर भीतर में अशुचि भरी पड़ी है। शरीर की अशुचि की अनुप्रेक्षा करने से विरक्ति की भावना उत्पन्न हो सकती है। शरीर की सुंदरता का महत्त्व हो सकता है, पर आर्जव और मार्दव का अभ्यासी महानता को प्राप्त होता है। सुंदर शरीर का अभिमान न करें, निरहंकारता में रहने का प्रयास करें। पूज्यवर की अभिवन्दना में मुनि मार्दवकुमारजी एवं मुनि आकाशकुमारजी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। मुनि निकुंजकुमार जी ने पूज्य प्रवर से 10 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।