इन्द्रियों की दृष्टि से सबसे अविकसित प्राणी होते हैं एकेन्द्रिय जीव : आचार्यश्री महाश्रमण
अध्यात्म साधना के महोदधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आगम वाणी की अमृत वर्षा कराते हुए फरमाया कि आर्हत् वाङ्मय में पांचवा अंग है- भगवती सूत्र। भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया - एकेन्द्रिय कितने प्रकार के होते हैं? उत्तर में गौतम के नाम कहा गया है- एकेन्द्रिय पांच प्रकार के होते हैं, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पति काय। हमारी दुनिया में दो ही चीजें हैं- जीव या अजीव। पच्चीस बोल में इक्कीसवां बोल है - राशि दो - जीव और अजीव। यह जगत इन दो तत्त्वों का सम्मिलित रूप है। कुछ अजीव दृश्य तो कुछ अदृश्य भी होते हैं। जैसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल, ये अजीव द्रव्य अमूर्त्त हैं, एक पुद्गलास्तिकाय ऐसा अजीव द्रव्य है, जो दृश्य हो सकता है।
आत्मा अपने आप में अमूर्त्त है। जीव दो प्रकार के हैं- सिद्ध और संसारी। सिद्ध जीव तो पूर्णतया कर्ममुक्त हैं। संसारी जीव यों तो अमूर्त्त हैं, पर कर्म लगे होने के कारण कर्म और आत्मा एकामेक बने हुए हैं। सिद्ध भगवान जो सिद्ध भी हैं और शुद्ध भी हैं, उन आत्माओं पर कोई कर्म मल नहीं होता। वे पूर्णतया अमूर्त रूप में होते हैं। जब तक संसारी अवस्था में हैं, कर्म पूर्णतया दूर होते ही नहीं हैं। चौदहवें गुणस्थान वाले महापुरुष के भी कर्म लगे हुए होते हैं। संसारी जीवों को कर्म की अपेक्षा से मूर्त्त भी कह सकते हैं, पर कर्म भी आंखों के द्वारा अवलोकनीय नहीं बन सकते।
संसार में एकेन्द्रिय प्राणी एक प्रकार से सबसे अधिक अविकसित प्राणी हैं। एक ही इन्द्रिय है- स्पर्शनेन्द्रिय। द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय धीरे-धीरे और विकसित प्राणी हो जाते हैं। इन्द्रियों की दृष्टि से चतुरिन्द्रिय की अपेक्षा पंचेन्द्रिय जीव पूर्ण विकसित प्राणी हो जाते हैं। एकेन्द्रिय जीव स्थावर कहलाते हैं। धूल उड़ भी सकती है, पानी भी बरसता है, अग्नि में भी लपटें उठती हैं, वायु भी चलती है, वनस्पति भी बढ़ती है, पर ये अपनी इच्छा से गति नहीं कर सकते। इनके स्थावर नाम कर्म का बन्ध होता है। सारे स्थावर एकेन्द्रिय जीव हैं, जो पांच प्रकार के होते हैं। शेष सारे त्रसकाय के जीव हैं। एक अपेक्षा से तीन त्रस हैं, तीन स्थावर हैं। तेजसकाय और वायुकाय गति त्रस हैं इसलिए इन्हें त्रस की कोटि में लिया सकता है। पृथ्वीकाय, अपकाय और वनस्पतिकाय ये तीन स्थावर हैं।
आगम अनुसार तेजस्काय और वायुकाय में कहीं-कहीं एक समान नियम लागू होते हैं। पृथ्वी, अप् और वनस्पतिकाय में कहीं-कहीं एक समान नियम लागू हो सकते हैं। इस तरह इनके दो वर्ग हो जाते हैं, पर हैं पांचों एकेन्द्रिय ही। इनके कर्म प्रकृतियां आठों ही होती है। कर्मों में कोई फर्क नहीं है, आठों कर्मों का इनके बन्धन होता है, आठों कर्म झड़ते भी हैं। साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने मंगल उद्बोधन में कहा कि सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मुक्ति का मार्ग बताया गया है। भक्ति को हम स्वाध्याय के अन्तर्गत ले सकते हैं और स्वाध्याय को तप के अंतर्गत ले सकते हैं। भक्ति चारित्र का भी अंग बन सकती है और दर्शन का भी अंग बन सकती है। भक्ति भगवान से जोड़ने वाला तार है। हमारे यहाँ भाव पूजा के रूप में भक्ति की जाती है। स्तवन और स्तुति से ज्ञान, दर्शन, चारित्र बोधि को प्राप्त करता है। पूज्यवर की अभिवन्दना में मुनि हितेन्द्रकुमारजी, मुनि जागृतकुमारजी एवं मुनि अभिजीतकुमारजी ने अपनी भावना व्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।