प्रतिभा, पुरुषार्थ और अध्यवसाय से करें श्रुत की आराधना : आचार्यश्री महाश्रमण
अध्यात्म साधना के शिखर पुरुष आचार्यश्री महाश्रमणजी ने फरमाया कि जैन तेरापंथ धर्मसंघ में 32 आगम स्वीकृत हैं, उनमें ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद और एक आवश्यक हैं। यह आगम बत्तीसी है। इन ग्यारह अंगों में पांचवां अंग है- भगवती सूत्र। इसका मूल नाम भगवई विआहपण्णती है जिसे संक्षिप्त में भगवती कहा जाता है। भगवती बड़ा सम्मानजनक शब्द है।भगवती की यह विशेषता है कि वर्तमान में उपलब्ध 32 आगमों में सबसे बड़ा विशालकाय आगम भगवती सूत्र है। भगवती सूत्र में संवाद शैली - प्रश्नोत्तर के माध्यम से ज्ञान प्रस्तुत किया गया है। आगमों पर व्याख्या-चूर्णि भी मिलती है। श्रीमद् जयाचार्य ने राजस्थानी भाषा में ‘भगवती की जोड़’ की पद्यात्मक रचना कर एक असाधारण कार्य किया था। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के प्राबल्य से ही कोई इतनी बड़ी रचना कर सकता है।
आचार्य प्रवर ने फ़रमाया कि भगवती सूत्र पर आधारित व्याख्यान के क्रम में 26वें शतक से पहले के शतक मुंबई व छापर चतुर्मास में संभवतः हो चुके हैं। भगवती सूत्र मानो समुद्र सा है। समुद्र को पार करते-करते काफी हिस्सा इस समुद्र का पार कर लिया, थोड़ा इसमें बचा है, वो यथासंभव बताया जा सकेगा। आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा और श्रावण कृष्णा एकम ये दोनों तिथियां आगम स्वाध्याय के लिए निषिद्ध गई हैं। वर्ष में और भी तिथियों को आगम के लिए अस्वाध्यायी माना गया है। आज से आगम का स्वाध्यायकाल शुरू हो चुका है।
26 वें शतक के प्रथम उद्देशक में बताया गया है कि भगवती श्रुत देवता को नमस्कार है। भक्ति से श्रुत की आराधना करना, जिनेश्वर देव की आराधना करना है। भगवती भी ज्ञानवती है, ज्ञान का सम्मान है। इस भगवती के ज्ञाता चारित्र युक्त साधु को भी नमस्कार है। श्रुत को ग्रहण करने का प्रयास करें। बहुश्रुत शब्द भी आता है। वह चारित्र आत्मा जिसके पास अनेक आगम-ग्रंथों का ज्ञान है, वह बहुश्रुत है। बहुश्रुत बनना भी सामान्य बात नहीं है। प्रतिभा, ग्रहण शक्ति, पुरुषार्थ, अध्यवसाय, लगन आदि के द्वारा ज्ञान को ग्रहण करने का प्रयास करें। ज्ञान को ग्रहण करने में स्थिर अध्यवसाय, विधि-विधान का ज्ञान होना चाहिए, इसके बिना व्यक्ति पारंगत नहीं बन सकता। ज्ञान भी पात्र को ही दिया जाना चाहिए।
पात्र बड़ा हो, स्वच्छ हो, ज्ञान देने वाला अच्छा ज्ञानी और योग्य हो और ज्ञान लेने वाला भी योग्य हो, प्रतिभा - प्रज्ञा का योग हो तो वह बहुश्रुत बन सकता है। इस प्रकार भगवती सूत्र में श्रुत देवता को नमस्कार किया गया है। पूज्यप्रवर की मंगल प्रवचन के पश्चात् साध्वी त्रिशलाकुमारीजी एवं सहवर्ती साध्वी वृंद ने गीत के माध्यम से पूज्यवर की अभिवन्दना की। साध्वी चैतन्ययशाजी, साध्वी राजश्रीजी, साध्वी धृतिप्रभाजी, साध्वी हिमश्रीजी, साध्वी मंजुलयशाजी, साध्वी अर्चनाश्रीजी ने भी अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।