धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

(पिछला शेष)
भगवती सूत्र में उल्लेख है कि स्कन्दक ने गौतम गणधर से पूछा- आपको किसने यह अनुशासन दिया?
गौतम ने कहा- 'धर्माचार्य ने।'
यहां धर्माचार्य का अभिप्राय तीर्थकर महावीर से है।
अग्लान भाव से दस प्रकार का वैयावृत्त्य करने वाला महान् कर्मक्षय करने वाला और आत्यन्तिक पर्यवसान वाला होता है। उत्तराध्ययन के २९ वें अध्ययन में प्रज्ञप्त है कि वैयावृत्त्य से जीव तीर्थंकर नामगोत्र का बन्ध करता है।
महान्तो ज्ञानिनः सन्ति, महान्तो ध्यानिनस्तथा।
तेभ्योपि सुमहान्तश्च, सन्ति सेवापरायणाः ।।
ज्ञानी महान् हैं। ध्यानी महान् हैं। उनसे भी ज्यादा महान् वे हैं जो सेवापरायण हैं। सेवा वही व्यक्ति सुचारु रूप से कर सकता है जो स्वार्थ को छोड़ परार्थ या परमार्थ का अभिलाषी बनता है। यह परार्थ या परमार्थ का प्रयोग है। परार्थ और परमार्थ की भावना जहां होती है वहां स्वार्थ गौण अथवा क्षीण हो जाता है इसलिए वैयावृत्त्य स्वार्थविलय का एक प्रयोग बन सकता है यदि फलाकांक्षा को भावना न हो।
वैयावृत्त्य के दस स्थान - व्याख्यासहित 'ठाणं' में इस प्रकार उपलब्ध हैं-
१. आचार्य– ये पांच प्रकार के होते हैं- प्रव्राजनाचार्य, दिशाचार्य, उद्देसनाचार्य, समुद्देशनाचार्य और वाचनाचार्य।
२. उपाध्याय– सूत्र की वाचना देने वाले।
३. स्थविर– धर्म में स्थिर करने वाले। ये तीन प्रकार के होते हैं-
जातिस्थविर- जिसकी आयु ६० वर्ष से अधिक है।
श्रुतस्थविर- स्थानांग तथा समवायांग का धारक।
पयार्यस्थावि- न्यूनतम बीस वर्ष से साधुत्व पालने वाला।
४. तपस्वी– मांसक्षपण आदि बड़ी तपस्या करने वाला।
५. ग्लान– रोग आदि से असक्त, खिन्न।
६. शैक्ष– शिक्षा ग्रहण करने वाला नवदीक्षित।
७. कुल– एक आचार्य के शिष्यों का समुदाय।
८. गण– कुलों का समुदाय
९. संघ– गणों का समुदाय
१०. साधर्मिक– वेष और मान्यता में समान धर्म।
ज्ञान-प्राप्ति का प्रयोग
जीवन-निर्माण में दो तत्त्वों का महत्त्वपूर्ण स्थान है, वे हैं ज्ञान और चारित्र। इन दोनों में पहला स्थान किसका? मैं इस प्रश्न पर जब दृष्टिपात करता हूं, मुझे सापेक्ष उत्तर मिलता है। दशवैकालिक का सूक्त है- 'पढ़मं नाणं तओ दया'– पहले ज्ञान और फिर चारित्र। यह बात बिलकुल सही है। सम्यक् ज्ञान के बिना सम्यक् चारित्र प्राप्त नहीं हो सकता। सम्यक् चारित्र का आधार है सम्यक् ज्ञान! अहिंसा, सत्य और समता स्वरूप चारित्र को जो व्यक्ति जानता ही नहीं, उससे वीतरागता को साधना को अपेक्षा साधारणतया नहीं को जा सकती। कम से कम आचरणीय विषय का ज्ञान तो हो, उसके बाद अगला कदम होता है उसके आचरण का। गति से पूर्व गंतव्य का ज्ञान आवश्यक है। इस दृष्टि से सम्यक् ज्ञान की प्राथमिकता है। उसकी महत्ता है। यह एक अपेक्षा है। दूसरी अपेक्षा से चरित्र की प्राथमिकता और प्रधानता है। ज्ञान का स्थान बाद में है, गौण है। दशवैकालिक सूत्र की ही एक गाथा है-
पगईए मंदावि भवंति एगे, डहरा वि य जे सुयबुद्धोववेया।
आयारमंता गुणसुट्ठि अप्पा, जे हीलिया सिहिरिव भास कुज्जा ।।