श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

'तो मैं यह समझूं कि भगवान् को भूख लगनी बन्द हो गई?'
'यह सर्वथा गलत है। वे रुग्ण नहीं थे, तब यह कैसे समझा जाए कि उन्हें भूख लगनी बन्द हो गई।'
'तो फिर यह समझूं कि भगवान् भूख का दमन करते रहे, उसे सहते रहे?'
'यह भी सही समझ नहीं है।'
'सही समझ फिर क्या है?'
'भगवान् आत्मा के ध्यान में इतने तन्मय हो जाते थे कि उनकी भूख प्यास
की अनुभूति क्षीण हो जाती थी।' 'क्या ऐसा हो सकता है?'
'नहीं क्यों? महर्षि पतंजलि का अनुभव है कि कंठकूप में संयम करने से भूख और प्यास निवृत्त हो जाती है।'
'कंठकूप का अर्थ?'
'जिह्वा के नीचे तन्तु है। तन्तु के नीचे कंठ है। कंठ के नीचे कूप है।' 'संयम का अर्थ?' 'धारणा, ध्यान और समाधि-इन तीनों का नाम संयम है। जो व्यक्ति कंठ-कूप पर इन तीनों का प्रयोग करता है, उसे भूख और प्यास बाधित नहीं करती। भगवान् ने शरीर को सताने के लिए भूख-प्यास का दमन नहीं किया। उनके ध्यानबल से उसकी मात्रा कम हो गई।
स्वाद-विजय
भगवान भोजन के विषय में बहुत ध्यान देते थे। वे शरीर-संधारण के लिए जितना अनिवार्य होता, उतना ही खाते थे। कुछ लोग रुग्ण होने पर कम खाते हैं। भगवान् स्वस्थ थे, फिर भी कम खाते थे। उनकी ऊनोदरिका के तीन आलंबन थे-सीमित बार खाना, परिमित मात्रा में खाना और परिमित वस्तुएं खाना।
'क्या भगवान् ने अस्वाद के प्रयोग किए थे?
'भगवान् जीवन के हर क्षेत्र में समत्व का प्रयोग कर रहे थे। वह भोजन के क्षेत्र में भी चल रहा था। उनके अस्वाद के प्रयोग समत्व के प्रयोग से भिन्न नहीं थे।'
'क्या वे स्वादिष्ट भोजन नहीं करते थे?'
'करते थे। भगवान् दीक्षा के दूसरे दिन कर्मारग्राम से विहार कर कोल्लाग सन्निवेश पहुंचे। वहां बहुल नाम का ब्राह्मण रहता था। भगवान् उसके घर गए। उसने भगवान् को घृत-शर्करायुक्त परमान्न (खीर) का भोजन दिया।
'भगवान् उत्तर वाचाला में विहार कर रहे थे। वहां नागसेन नाम का गृहपति रहता था। भगवान् उसके घर पर गए। उसने भगवान् को खीर का भोजन दिया।'
'क्या वे नीरस भोजन नहीं लेते थे?'
'लेते थे। भगवान् सुवर्णखल से ब्राह्मण गांव गए। वह दो भागों में विभक्त था। नंद और उपनंद दोनों सगे भाई थे। एक भाग नंद का और दूसरा उपनंद का। भगवान् नंद के भाग में भिक्षा के लिए गए। उन्हें नन्द के घर पर बासी भात मिला।
'वाणिज्यग्राम में आनन्द नाम का गृहपति रहता था। उसके एक दासी थी उसका नाम था
बहुला। वह रसोई बनाती थी। यह बासी भात को डालने के लिए बाहर जा रही थी। उस समय भगवान् वहां पहुंच गए। दासी ने भगवान् को देखा। वह दीन स्वर में बोली, 'भंते! अभी रसोई नहीं बनी है। यह बासी भात है। यदि आप लेना चाहें तो लें।' भगवान् ने हाथ आगे फैलाया। दासी ने बासी भात दिया।'