साँसों का इकतारा
ु साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा ु
(21)
भरे समन्दर में भी जो ना होते गीले
कैसे उन अधरों की घट से प्यास बुझाऊँ।
जब अनंत में नहीं तृप्ति मिलती नयनों को
तब ससीम छवियों में कैसे उसको पाऊँ॥
मैं अनगढ़ पाषाण कुशल शिल्पी तुम जग में
छेनी के घावों से मुझको तोष मिला है।
मैं हूँ कोरा कागज निपुण चितेरे हो तुम
परस तुम्हारा पाकर मेरा रूप खिला है।
मैं छोटी-सी लहर समन्दर तुम विशाल हो
गहराई का कैसे मैं अनुमान लगाऊँ॥
जो अरण्य में है व्याकुल मन में भारीपन
उस विरहिणी सीता को पुलकित करो राम! तुम
विष पीकर पीयूष उगलती जो जीवन में
मानवता मीरा की विपदा हरो श्याम! तुम
आत्मा में है सत्यं शिवं सुंदरं सब कुछ
छाया जो अज्ञान उसे अब दूर भगाऊँ॥
अंतहीन नभ को कैसे मैं माप सकूँगी
नहीं दीखता गुणवत्ता का कहीं किनारा।
जीवन के हर समरांगण में विजय मिली है
मान रहे सब रण-कौशल अप्रतिम तुम्हारा
मोड़-मोड़ पर आध्यात्मिक आलोक बिखेरो
मैं अपनी गन्तव्य-दिशा में बढ़ती जाऊँ॥
(22)
ज्योतिदीप ले कर में तुमने कितने अभिनव पंथ दिखाए।
आत्मदीप बन जले निरंतर बुझे हुए सब दीप जलाए॥
ज्योतिर्मय आभामंडल से ज्योति बाँटते तुम जन-जन को
ज्योति मार्ग है मंजिल भी है ज्योतित करने अंतर्मन को
पा अवदान ज्योति का तुमसे उजल रहे हैं तम के साये॥
प्रीति तुम्हारी है पौरुष से वह भी हुआ तुम्हारा अनुचर
अधरों पर संगीत उसी का पौरुष-पथ के तुम यायावर
लिखते अपना भाग्य स्वयं ही कौन भाग्यलिपि लिखने आए॥
आस्था का अनुबंध सनातन साथ तर्क के रिश्ते गहरे
सत्यशोध के लिए मुक्त मन पर हैं परंपरा के पहरे
अनेकांत दर्शन जीवन की उलझन पल भर में सुलझाए॥
योगक्षेम वर्ष मंगलमय खड़ा सामने बनकर सपना
आगे बढ़ें करें अगवानी सत्य बनाएँ उसको अपना
ऐसा मंत्र बताओ सबको प्रज्ञा की जागृति हो जाए॥