संबोधि
ु आचार्य महाप्रज्ञ ु
आज्ञावाद
भगवान् प्राह
(6) आज्ञाया: परमं तत्त्वं, रागद्वेषविवर्जनम्।
एताभ्यामेव संसारो, मोक्षस्तन्मुक्तिरेव च॥
आज्ञा का परम तत्त्व हैराग और द्वेष का वर्जन। ये राग-द्वेष ही संसार या बंधन के हेतु हैं और इनसे मुक्त होना ही मोक्ष है। जैन दर्शन में राग-द्वेष को बंधन का हेतु माना है। भगवान् महावीर ने कहा है‘रागो य दोसो बिय कम्मबीयं’सभी कर्मों के ये दो उपादान हैं। इनसे कर्मबंध होता है और कर्मबंध से जीव विभिन्न योनियों में चक्कर काटता है। जब ये दोनों नष्ट हो जाते हैं तब वीतराग-दशा की प्राप्ति होती है। यही मोक्ष है। तीर्थंकरों की आज्ञा हैअस्तित्व का बोध करना। मैं कौन हूँ? इसे जानो। राग-द्वेष जब मेरे से अन्यथा हैं तब वे मुझे कैसे परिचालित कर सकेंगे? जब तक मैं इन्हें ‘स्व’ मानता हूँ तब तक ही ये मुझे अपना क्रीडांगण बनाकर अठखेलियाँ करते रहते हैं। स्वयं के अस्तित्व की पहचान हो जाने पर इनका मंदिर स्वत: उजड़ने लगता है। स्व-बोध की साधना में जो उतरता है वही तीर्थंकर की आज्ञा का सम्यग् आराधक है। बुद्ध के शिष्य आनंद ने पूछाभगवन्! हम आपके शरीर की पूजा-अर्चना कैसे कर सकते हैं? बुद्ध ने कहाआनंद! मल-मूत्र से भरा जैसे तुम्हारा शरीर है, वैसा ही मेरा है। इस अशुचि-शरीर की पूजा से कोई फायदा नहीं। मेरी सेवा करनी है तो मेरे धर्म-शरीर की सेवा करो। ‘जो धर्म को देखता है वह मुझे देखता है। मैंने जो मार्गदर्शन दिया है उसका अभ्यास, आचरण करो, यह मेरी सेवा है।’
गौतम महावीर के प्रिय शिष्य थे। वे महावीर के शरीर से प्रतिबद्ध थे, व्यक्तित्व में अनुरक्त थे। अनेक साधक उनकी उपस्थिति में बुद्धत्व, सिद्धत्व और कैवल्य को उपलब्ध हो गए, किंतु गौतम नहीं हुए। गौतम इस तथ्य को नहीं समझ सके कि इसका कारण मैं स्वयं हूँ। मुझे जो राग-द्वेष की विमुक्ति का अभ्यास करना चाहिए वह मैं नहीं कर रहा हूँ। महावीर के प्रति मेरा आसक्ति का भाव ही मेरे अवरोध का कारण है। जैसे ही उसे हटाया, गौतम केवल्य मंदिर में प्रतिष्ठित हो गए।
आज्ञा और अनाज्ञा के प्रति हमारा स्पष्ट विवेक होना चाहिए। आज्ञा धर्म है और अनाज्ञा अधर्मये शब्द ठीक हैं, तथ्ययुक्त हैं किंतु आचरण के अभाव में केवल शब्दों से सत्य का साक्षात्कार नहीं होता। सत्य की आराधना के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपने अंतस्तल को प्रयोगशाला बनाए और स्वयं में प्रयोग करें, सच्चाई को समझें। अन्यथा तीर्थंकरों की उपासना कैसे की जा सकेगी? उनकी उपासना राग-द्वेष से मुक्ति के अतिरिक्त और है ही क्या? ‘मेरा धर्म आज्ञा में है’ इसके अभिप्राय को समझना होगा। आज्ञा की आराधना मुक्ति है और विराधना संसार। आचार्य हेमचंद्र ने लिखा हैअर्हत् वाणी का सार सिर्फ इतना ही है कि आव (वासना, चंचलता, प्रवृत्ति) संसार का हेतु है और संवर (निवृत्ति, निरोध, अक्रिया) मोक्ष का हेतु है। तीर्थंकर, बुद्ध तथा आत्मोपलब्ध व्यक्ति का एकमात्र यही उपदेश होता है कि संबोधि (स्वभाव) को प्राप्त करो। जीवन जा रहा है। मानव संबोधि को जानें, इसमें ही उसका कल्याण निहित है। तीर्थंकर की एकमात्र यही आज्ञा है और यह आज्ञा ही धर्म है। तत्त्वज्ञानतरंगिणी में कहा हैसद्गुरुओं का यही आदेश है, समग्र सिद्धांतों का यही रहस्य है और कर्तव्यों में मुख्य कर्तव्य भी यही हैअपने ज्ञान-स्वरूप में स्थिति करो। अन्य करणीय कार्यों की तालिका सिर्फ इसका ही विस्तार है।
व्यक्ति का आनंद आज्ञा-स्वभाव को जागृत करने में हैं, विभाव में नहीं। विभाव दु:ख है, बंधन है और स्वभाव सुख, स्वतंत्रता तथा मुक्ति है। जो विवेकी है, हिताहित का द्रष्टा है, उसे सोच-विचार कर अपने हित में प्रवृत्त होना चाहिए।