अच्छा जीवन जीने के लिए ज्ञान और आचार का होना जरूरी : आचार्यश्री महाश्रमण
डायमंड नगरी सूरत के भगवान महावीर यूनिवर्सिटी में युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी के सान्निध्य में एनआरआई समिट 2024 के अंतर्गत ऑस्ट्रेलिया, न्यू गिनी, ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, हांगकांग, इंडोनेशिया, मलेशिया, नीदरलैंड, सऊदी अरब, सिंगापुर, इंग्लैंड, अमेरिका, बहरीन, यूएई आदि देशों से करीब 200 से अधिक प्रतिनिधि पहुंचे। समिट के द्वितीय दिवस युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी ने अपनी अमृत देशना के अंतर्गत कहा कि आयारो आगम में वायुकाय की हिंसा की बात आती है। जिस प्रकार जल, पृथ्वी, अग्नि व वनस्पति सजीव हैं उसी प्रकार जैन आगमों में वायुकाय को भी सजीव माना गया है। वायु की हिंसा भी होती है।
प्रश्न हो सकता है कि वायुकाय के जीवों की हिंसा कौन करता है? बताया गया कि जो आचार में रमण नहीं करते हैं, जो आचार निष्ठ नहीं होते, वे वायुकाय की हिंसा करते हैं। साता से आकुल मानस वाले लोग वायुकाय के जीवों की हिंसा करने वाले होते हैं। सामान्य आदमी के लिए गर्मी को सहना कुछ मुश्किल हो सकता है। साधु-साध्वियों को ना तो पंखा चलाना है, ना चलवाना है। जैसे भोजन, पानी के लिए गृहस्थ को हिंसा होती है, वैसे ही हवा लेने में भी गृहस्थों को हिंसा हो सकती है। इसे आवश्यक हिंसा माना जा सकता है। कुछ गृहस्थ भी पंखे और A.C. का कम से कम का उपयोग करते हैं, यह भी एक साधना है। आदमी बड़ी हिंसा से बचने का प्रयास करे।
मनुष्य जीवन में ज्ञान का विकास भी होना चाहिए तो आचार पक्ष भी सुदृढ रहना चाहिए। आगम व शास्त्रों का ज्ञान बहुत श्रम करने के बाद मिलता है। विद्यार्थी अपना ज्ञान अर्जित कर डॉक्टर, इंजीनियर आदि बनते हैं, इसका अर्थ है कि उन्होंने अपना वर्षों श्रम लगाया होगा। गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी और आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के पास कितना था। कितने ग्रंथ और साहित्य उनके द्वारा लिखे गए थे। ज्ञान जीवन का एक पक्ष है। ज्ञान की आराधना भी एक सारस्वत साधना है। ज्ञान की आराधना के लिए संयम, त्याग का होना भी आवश्यक होता है। ज्ञानवान बनने के लिए श्रद्वा, निष्ठा, समर्पण और त्याग की आवश्यकता है। जीवन का दूसरा पक्ष आचार होता है। ज्ञान और आचार नहीं हो तो जीवन की गति अच्छी नहीं हो सकती। आदमी का आचरण भी उन्नत हो तो जीवन की गति अच्छी हो सकती है। परम पूज्य आचार्य प्रवर के मंगल प्रवचन के पूर्व साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि हमारे भीतर अनंत शक्ति है।
व्यक्ति शक्ति से कुछ नया कर सकता है। जैन दर्शन में आत्मा में अनंत ज्ञान, अनंत शक्ति और अनंत आनंद को स्वीकार करता है। हम भी उस अनंत ज्ञान, अनंत शक्ति और अनंत आनंद को प्राप्त कर सकते हैं। हमें सही दिशा में पुरुषार्थ करना होगा, वही हमें लक्ष्य की ओर ले जाएगा।
हमारे पास शक्ति के तीन स्रोत हैं- मन, वचन और शरीर। हमें शक्ति का उत्पादन करना है और उसे सुरक्षित भी रखना है। तीन शब्द हैं- Use, Misuse, Abuse, हमें इन्द्रियों के मिसयूज और अब्यूज से दूर रहना है। हम शक्ति के उत्पादन और संरक्षण के प्रति सजग बनें। मंगल प्रवचन के पश्चात मुनि पारस कुमार जी ने पूज्य प्रवर से 49 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया। मुनि उदितकुमार जी ने श्रावक-श्राविकाओं को तपस्या के लिए प्रेरित किया। एनआरआई बालक सार्थ हरकावत ने अपनी प्रस्तुति दी। वर्ल्ड पीस सेंटर लंदन ट्रस्ट के आशु बोहरा, जीतू ढेलड़िया ने अपने विचार व्यक्त किए। आज्ञा भूतोड़िया ने चौबीसी के गीत का संगान किया। पांडेसरा ज्ञानशाला की सुंदर प्रस्तुति हुई। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।