त्रस जीवों की हिंसा से बचने का हो प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण
महामनीषी आचार्य श्री महाश्रमण जी जिनवाणी का श्रवण करते हुए फरमाया कि षट् जीव निकाय में पांच स्थावर व एक त्रस काय है। दूसरी अपेक्षा से तीन स्थावर तीन त्रसकाय हो सकते हैं। तेजसकाय, वायुकाय को गति त्रस के रूप में स्वीकार किया गया है। पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय का एक वर्गीकरण है, तेजस और वायु एक वर्गीकरण है। दोनों पर अलग-अलग नियम लागू होते हैं। त्रसकाय में दो इंद्रियों से पंचेेंद्रीय तक जीव आ जाते हैं। त्रस काय के जीव गति करने वाले होते हैं, गमन करने वाले होते हैं। स्थावर के बारे में प्रश्न हो सकता है कि उनकी वेदना का पता नहीं चलता। त्रसकाय जीवों की वेदना देखी जा सकती है। अहिंसा की दृष्टि से हम विचार करें कि जीवन के लिए स्थावर जीवों की हिंसा होती है, वनस्पति काय तो कितना काम में आती है, जीवन चलाने के लिए उनकी हिंसा से बचना मुश्किल है। साधु के लिए भी द्रव्य रूप से मुश्किल हो सकता है पर यह आगम सम्मत है। पंचमी में, विहार में, स्थावर काय की हिंसा हो सकती है पर इसमें अल्पीकरण का ध्यान रहे। गृहस्थ भी जितना हो सके इनसे बचने का प्रयास करे। अनंत काय के सेवन का वर्जन करे। त्रसकाय की हिंसा जरूरी नहीं है। दो प्रकार का आहार है- शाकाहार और मांसाहार। बिना मांसाहार के उपयोग से जीवन चल सकता है, पर ऐसा कोई नहीं कह सकता कि मैं केवल मांसाहार ही करूंगा शाकाहार का उपयोग नहीं करूंगा। शाकाहार में कुछ चीज अपने आप में भी अचित्त हो सकती है, मांसाहार में तो साक्षात पंचेेंद्रीय प्राणी को मारा जाता है। यह तो साक्षात हिंसा है। गृहस्थों के बच्चे बाहर पढ़ने जाएं पर मांसाहार का संयम रहे। होटल, हॉस्टल, हॉस्पिटल में भी मांसाहार का उपयोग ना हो। त्रस जीवों की हिंसा से बचने का संयम रखने का हम प्रयास करें।
पूज्य प्रवर के सान्निध्य में विगत दिनों कर्नाटक के सिंधनूर में दिवंगत हुए साध्वी लावण्यश्री जी स्मृति सभा आयोजित की गई। आचार्य प्रवर ने उनका जीवन परिचय प्रस्तुत करते हुए कहा यह विशेष बात रही कि वे कर्नाटक में ही जन्मी, कर्नाटक में ही उन्होंने दीक्षा ली, और कर्नाटक में ही उनका प्रयाण हो गया। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने कहा कि वे कई वर्षों से दक्षिण भारत की यात्रा कर रही थी। वे अपने आचार विचार के प्रति जागरूक थे। उनकी संघनिष्ठा, गुरुनिष्ठा बेजोड़ थी। वे साध्वी सोहनां जी के साथ उनकी पछेवड़ी की तरह रही। मैं उनकी आत्मा के ऊर्ध्वारोहण की मंगल कामना करती हूं। मुख्यमुनि श्री महावीरकुमारजी ने कहा कि यह मनुष्य जन्म दुर्लभ है। इस दुर्लभ जीवन को पाकर उसका अच्छा उपयोग जो करता है वह धन्य हो जाता है। मैं मंगल कामना करता हूं कि साध्वी श्री लावण्यश्री जी की आत्मा सिद्ध गति की ओर शीघ्र प्रगति करे। मुनि जितेंद्रकुमारजी, साध्वी दर्शनविभाजी, साध्वी परागप्रभाजी ने भी अपनी भावांजलि अभिव्यक्त की। सिंधनूर सभा के मंत्री आनंद जीरावाला ने अपने विचार व्यक्त किए। ज्ञानशाला प्रशिक्षिकाओं ने चौबीसी के गीत की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।