भौतिकता में रहते हुए आध्यात्मिकता में जीने का प्रयास करें : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

भौतिकता में रहते हुए आध्यात्मिकता में जीने का प्रयास करें : आचार्यश्री महाश्रमण

जिन शासन प्रभावक आचार्य श्री महाश्रमण जी ने आयारो आगम का अमृत पान कराते हुए फरमाया कि शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श ये पांच विषय भौतिक जगत के अंग हैं। भौतिक जगत पुद्गल का होता है। एक ओर अध्यात्मवाद है तो दूसरी ओर भौतिकतावाद है। हर व्यक्ति के लिए भौतिकता से मुक्त होकर जीवन जीना तो मुश्किल हो सकता है। चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान वाले तो भौतिकता से पूर्णतया मुक्त होते हैं। वे श्वास भी नहीं लेते, ना खाते हैं, ना पीते हैं, शरीर, मन, वचन की प्रवृत्ति नहीं है। भौतिकता से मुक्त सिद्ध आत्माएं होती हैं। शेष तेरह गुणस्थान तक तो भौतिकता किसी न किसी रूप में जुड़ी रहती है। शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श को गुण कहा गया है। जो विषय हैं, वे नाना प्रकार के भावों के संक्रमण के हेतु बन जाते हैं। सिद्ध भगवान एक ही समय में ज्ञाता और द्रष्टा भाव नहीं रखते हैं, वे एक समय में केवल ज्ञान से जानते हैं और दूसरे समय में देखते हैं अथवा एक समय में देखा और दूसरे समय में जाना। एक समय में ज्ञाता और द्रष्टा‌ नहीं होते।
हमारे में परिवर्तन हो सकता है जैसा देखेंगे वैसा भाव आएगा यह शब्द आदि जो विषय हैं वे हमारे भावों के संक्रमण का हेतु बनते हैं। भाव और पदार्थ का संबंध भी देखा जा सकता है यह पांच विषय वनस्पति जगत से संबंधित हैं। पदार्थ के प्रति आसक्ति है तो वस्तुओं को पाने का प्रयास होता है। प्रिय वस्तु को देखने से राग भाव आ सकता है। पदार्थ हमारे उपयोग में भी आते हैं, पर उनके प्रति आसक्ति का भाव ना हो, राग-द्वेष का भाव न आए। भौतिकता में आध्यात्मिकता हो, भौतिकता में रहते हुए आध्यात्मिकता में जीने का प्रयास करें।
उपासक उपासिकाएं हैं, जीवन में पदार्थों के बिना चल पाना संभव नहीं है, पर भौतिकता में संयम हो। राग -द्वेष से मुक्त रहने की साधना आध्यात्मिक साधना हो सकती है। राग-द्वेषात्मक आवेशात्मक भाव ना उभरें। भावों का संक्रमण हो तो अच्छे भाव आएं। गुरु की प्रशंसा होने से अच्छे भाव आ सकते हैं। यह हमारी साधना बन सकती है। गुण हमारे गुणकारी बन जाएं। मुख्य प्रवचन के पश्चात 'नीति रो प्यालो' के आख्यान के माध्यम से पूज्य प्रवर ने समझाया कि लाभ से लोभ बढ़ता है। पूज्य प्रवर ने कई तपस्याओं के प्रत्याख्यान करवाए। प्रवक्ता उपासक श्रीचंद बाफना ने 35 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया।
उपासक सेमिनार के मंचीय कार्यक्रम में उपासक श्रेणी के आध्यात्मिक पर्यवेक्षक मुनि योगेश कुमार जी ने कहा कि छोटे-छोटे श्रद्धा के क्षेत्रों की संभाल उपासक श्रेणी कर रही है। उपासक श्रेणी की विकास यात्रा निरंतर गतिमान है। विनोद बांठिया ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। उपासक श्रेणी के राष्ट्रीय संयोजक सूर्यप्रकाश श्यामसुखा ने पूज्य प्रवर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कहा कि उपासक श्रेणी संख्या के साथ गुणवत्ता में भी विकास कर रही है। कुछ उपासक-उपासिकाएं संयम पद की और अग्रसर होना चाहते हैं। उपासक श्रेणी ने 'तुलसी महाप्रज्ञ का चिंतन हो रहा साकार है' का सुमधुर संगान। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया कि उपासक श्रेणी गुरुदेव तुलसी के समय में जन्मी हुई है। गुरुदेव तुलसी के समय उपासक श्रेणी से जुड़ने का मुझे सौभाग्य मिला था। उपासक शिविर भी चलते थे, प्रशिक्षण हेतु उपासना भाग 1 एवं भाग 2 पुस्तक भी सामने आई थी। सेमिनार में संख्या भी अच्छी लग रही है। यह सेमिनार तो यहां हो रहा है, बाहर भी अपेक्षा लगे तो यह सेमिनार हो सकते हैं। सेमिनार में भी प्रशिक्षण का अच्छा माध्यम बन सकता है। उपासक-उपासिकाओं में खूब तत्व ज्ञान का विकास होता रहे। पर्युषण यात्रा एक चीज है, इसके सिवाय भी उपासक श्रेणी की धर्म संघ के लिए उपयोगिता हो सकती है। अनेक कार्य जैसे ज्ञानशाला में कहीं प्रशिक्षण देना है, कहीं जैनिज्म-तेरापंथ के बारे में प्रस्तुति करना हो तो इस श्रेणी का अच्छा उपयोग हो सकता है। धार्मिक संदर्भ में काम करना हो, सार-संभाल या यात्रा करना हो तो इसका यथोचित उपयोग भी हो सकता है। बहुआयामी, विभिन्न उद्देश्यों व विभिन्न उपयोगों वाली उपासक श्रेणी सिद्ध हो सकती है। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।