वनस्पति के प्रति भी रखें समता और अनासक्ति का भाव : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

वनस्पति के प्रति भी रखें समता और अनासक्ति का भाव : आचार्यश्री महाश्रमण

धर्म दिवाकर आचार्य श्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि आयारो आगम के प्रथम अध्ययन में बताया गया है कि जीव का प्राणातिपात करना पाप होता है। हिंसा न करना अहिंसा है। राग-द्वेष का भाव, प्रमाद, हिंसा का मूल कारण बनता है। जहां तक पाप कर्म का संबंध है वह हमारे राग-द्वेष व भीतर के भाव पर आधारित है। हिंसा को हम दो रूप में देख सकते हैं- द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा। द्रव्य हिंसा में प्राणी के प्राणों का हनन हो तो गया पर जिस प्राणी के द्वारा वह हंतव्य हुआ है उसके हिंसा के भाव नहीं है तो वह द्रव्य हिंसा है, भाव हिंसा नहीं है। कहीं द्रव्य हिंसा है, कहीं भाव हिंसा है। कहीं द्रव्य और भाव हिंसा है।
जीव जीवे ते दया नहीं, मारे ते हिंसा मत जाण।
मारण वाले ने हिंसा कही, नहीं मारे थे दया गुण खान।।
जीव अपने आयुष्य बाल से जीता है वह हमारी दया का कारण नहीं है। कोई जीव स्वतः मर जाए उसके कारण हम नहीं है। जो मारते हैं वह हिंसा है, जो नहीं मारते वह गुण की खान होते हैं। हिंसा के भाव हैं पर जीव मरा नहीं तो भी भाव हिंसा का पाप लग जाता है। आदमी सलक्ष्य शस्त्र फेंकता है और प्राणी मर जाता है तो यहां द्रव्य और भाव हिंसा दोनों हो गई।
वनस्पति काय का विशाल जगत है उनके प्रति जो गुप्त है वह अनाज्ञा में है। भगवान की आज्ञा में धर्म है अनाज्ञा में अधर्म है। वनस्पति के प्रति राग-द्वेष का भाव है वह एक प्रकार से हिंसा है। राग-द्वेष के भाव से युक्त प्राणी अगुप्त होता है। आदमी को छह प्रकार के जीवों को जानकर उनकी हिंसा से बचने का प्रयास करना चाहिए। हमारे यहां मुमुक्ष को दीक्षा से पहले नव तत्वों का ज्ञान होना आवश्यक है। आदमी को वनपस्ति जनित पदार्थों के प्रति भी समता, अनासक्ति और अप्रमत्तता का भाव रखने का प्रयास करना चाहिए। मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यप्रवर ने आचार्यश्री तुलसी द्वारा रचित पुस्तक 'चन्दन की चुटकी भली' के आख्यान क्रम को आगे बढ़ाया।
साध्वीवर्या श्री संबुद्धयशाजी ने उद्बोधन देते हुए कहा कि जैसे समुद्र का पानी अमाप्य है, तराजू से नापा नहीं जा सकता। वैसे ही महापुरुषों के गुणों को मापा नहीं जा सकता। जैन जगत में सर्वश्रेष्ठ महापुरुष तीर्थंकर होते हैं, उनके गुणों को मापा नहीं जाता, वे तो गुण समुद्र हैं। तीर्थंकर तो अनंत गुणों के धारक होते हैं। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।