श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

मैं बहुत-बहुत कृतज्ञता ज्ञापित कर अपने अन्तःकरण में लौट आया। मैंने सोचा, जिन लोगों के मानस में महावीर की दीर्घतपस्विता की प्रतिमा अंकित है, उनके सामने मैं महावीर की दीर्घध्यानिता की प्रतिमा प्रस्तुत करूं।
महावीर ने दीक्षित होकर पहला प्रवास कर्मारग्राम में किया। ध्यान का पहला चरण-विन्यास वहीं हुआ। वह कैवल्य-प्राप्ति तक स्पष्ट होता चला गया।
कुछ साधक ध्यान के विषय में निश्चित आसनों का आग्रह रखते थे। महावीर इस विषय में आग्रहमुक्त थे। वे शरीर को सीधा और आगे की ओर कुछ झुका हुआ रखते थे। वे कभी बैठकर ध्यान करते और कभी खड़े होकर। वे अधिकतर खड़े होकर ध्यान किया करते थे। वे शिथिलीकरण को ध्यान के लिए अनिवार्य मानते थे, इसलिए वे खड़े हों या बैठे, कायोत्सर्ग की मुद्रा में ही रहते थे। श्वास की सूक्ष्म क्रिया के अतिरिक्त अन्य सभी (शारीरिक, वाचिक और मानसिक) क्रियाओं का विसर्जन किए रहते थे।'२
कुछ साधक ध्यान के लिए निश्चित समय का आग्रह करते थे। महावीर इस आग्रह से मुक्त थे। वे अधिकांश समय ध्यान में रहते थे। उन्हें न शास्त्रों का अध्ययन करना था, और न उपदेश। उन्हें करना था अनुभव या प्रत्यक्ष बोध। वे दूसरों की गायें चराने वाले ग्वाले नहीं थे जो समूचे दिन उन्हें चराते रहे और दूध दूहने के समय उनके स्वामियों को सौंप आएं। अपनी गायें चराते और उनका दूध दूहते थे।
महावीर स्वावलंबन और निरावलबन-दोनों प्रकार का ध्यान करते थे। वे मन को एकाग्र करने के लिए दीवार का आलंबन लेते थे। प्रहर-प्रहर तक तिर्यग्भित्ति (दीवार) पर अनिमेषदृष्टि टिकाकर ध्यान करते थे। इस त्राटक साधना से केवल उनका मन ही एकाग्र नहीं हुआ, उनकी आखें भी तेजस्वी हो गई। ध्यान के विकासकाल में उनकी त्राटक-साधना (अनिमेषदृष्टि) बहुत लम्बे समय तक चलती थी।
एक बार भगवान् दृढ़भूमि प्रदेश में गए। पेड़ाल नाम का गांव व पोलाश नाम का चैत्य। वहां भगवान् ने 'एकरात्रि की प्रतिमा' की साधना की। आरंभ में तीन दिन का उपवास किया। तीसरी रात को शरीर का व्युत्सर्ग कर खड़े हो गए। दोनों पैर सटे हुए थे और हाथ पैरों से सटकर नीचे की ओर झुके हुए थे। दृष्टि का उन्मेष-निमेष बंद था। उसे किसी एक पुद्गल (बिन्दु) पर स्थिर और सब इन्द्रियों को अपने-अपने गोलकों में स्थापित कर ध्यान में लीन हो गए।
यह भय और देहाध्यास के विसर्जन की प्रकृष्ट साधना है। इसका साधक ध्यान की गहराई में इतना खो जाता है कि उसे संस्कारों की भयानक उथल-पुथल का सामना करना पड़ता है। उस समय जो अविचल रह जाता है, वह प्रत्यक्ष अनुभव को प्राप्त करता है। जो विचलित हो जाता है वह उन्मत्त, रुग्ण या धर्मच्युत हो जाता है। भगवान् ने इस खतरनाक शिखर पर बारह बार आरोहण किया था।
साधना का ग्यारहवां वर्ष चल रहा था। भगवान् सानुलट्ठिय गांव में विहार कर रहे थे। वहां भगवान् ने भद्र प्रतिमा की साधना प्रारम्भ की। वे पूर्व दिशा की ओर मुंह कर कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़े हो गए। चार प्रहर तक ध्यान की अवस्था में खड़े रहे। इसी प्रकार उन्होंने उत्तर, पश्चिम और दक्षिण दिशा की ओर अभिमुख होकर चार-चार प्रहर तक ध्यान किया।
इस प्रतिमा में भगवान् को बहुत आनन्द का अनुभव हुआ। वे उसकी श्रृंखला में ही महाभद्र प्रतिमा के लिए प्रस्तुत हो गए। उसमें भगवान् ने चारों दिशाओं में एक-एक दिन-रात तक ध्यान किया।
ध्यान की श्रेणी इतनी प्रलंब हो गई कि भगवान् उसे तोड़ नहीं पाए। वे ध्यान के इसी क्रम में सर्वतोभद्र प्रतिमा की साधना में लग गए। चारों दिशाओं, चारों विदिशाओं, ऊर्ध्व और अधः- इन दसों दिशाओं में एक-एक दिन-रात तक ध्यान करते रहे।