“लावण्य मुखर हुआ दशों दिशाओं में”
'चएज्ज, देह न हु धम्मसासणं’
इस आर्ष वाक्य को चरितार्थ करने वाली बालिका लीला के भीतर वैराग्य का बीज वपन किया 28 वर्षीय अग्रणी साध्वी श्री सोहनकुमारीजी 'छापर' ने। मात्र 15 वर्षीय बालिका ने गृह त्याग का महान सपना संजोकार K.G.F Kolar Gold Fields से प्रस्थान कर जयसिंहपुर (महाराष्ट्र) में संसार सागर से तारनेवाले गुरुदेव श्री तुलसी के मुखकमल से संस्था प्रवेश की अनुमति प्राप्त की। केरल, कन्याकुमारी की यात्रा में यात्रायित महायायावर श्री तुलसी के शासनकाल मे चल रही चल संस्था मे प्रवेश पाया। केवल 8 माह संस्था में मुमुक्षु लीला के रूप में रहकर वैराग्य को परिपक्व बनाया !
‘जाए सहदाए णिक्खंतो तमेव अणुपालिया’
इस आप्त वचन को पल-पल संग रखने वाली मुमुक्षु लीला ने सन् 1969 फूलों की नगरी बेंगलोर में अपनी ननिहाल भूमि में वि. सं. 2026 कार्तिक शुक्ला पांचम के दिन अभिनिष्क्रमण किया एवं अपना सर्वस्व समर्पण श्री चरणों में कर दिया। लीला से साध्वी लावण्यश्री बन असीम धन्यता का अनुभव किया। साध्वी मंजुलाजी (गणमुक्त) के संरक्षण में एवं गुरुकुल वास में मात्र 26 दिन रहकर साधुत्व का स्वाद चखा।
‘विहार चरिया इसिणं पसत्था’
इस लक्ष्य के साथ अन्तर्यामी अनुशास्ता ने प्रतिबोध प्रदान कर साध्वी श्री सोहनकुमारी जी 'छापर' की सहवर्तिनी साध्वी के रूप में साध्वी श्री लावण्यश्रीजी को वंदना कराई। तब से लेकर 43 वर्ष तक गुरु इंगितानुसार भारत के कोने-कोने में जाकर संघ प्रभावना, संयम की साधना, आत्म आराधना एवं तिण्णाणं तारयाणं इस आर्ष वाणी को अक्षरशः जीया। हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, आसाम, बंगाल, बिहार, नेपाल, भूटान, गोवा, आदि सम्पूर्ण भारत में उडीसा प्रान्त को छोड़कर ‘विहार चरिया इसिणं पसत्था’ इस आगमोक्ति एवं चरैवैति-चरैवैति का एक लक्ष्य बना जो ठाना वो किया।
‘पुढवी समो मुणी हवेज्जा’
संयम की राह पर आए अनगिन उतार चढाव एवं परीषह में मध्यस्थ भाव रख ‘एक तान एक ध्यान राधा वेध साधणो’ का लक्ष्य सामने रख हर स्थिति को समभाव से सहा।
लाभा लाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा।
समो निंदा पसंसासु तहा माणावमाणओ।।
इस सिद्धान्त गाथा को चरितार्थ करने वाले कुछ प्रसंग
l एक बार Right leg में बहुत ही गहरा व्रण हो गया। उस दौरान परमपूज्य गुरुदेव श्री तुलसी श्वेतसंघ के संग उदयपुर पधार रहे थे। एक ओर प्रभु के शुभागमन पर भक्ति की तैयारियां दुसरी तरफ ग्रुप में सबसे छोटी साध्वी श्री लावण्यश्री के पैर में हुए अत्यधिक गहरे व्रण ने वेदना का प्रकोप बढ़ा दिया। बिना किसी परवाह किए हर कार्य में रत्नाधिक साध्वियों का भरपूर सहयोग किया।
l गंगाशहर चाकरी की सम्पन्नता के बाद प्राय: प्राय: 15-17 किमी विहार करवा रहे थे। मेड़ता सिटी पहुंचने में लगभग 60-70 किमी शेष था कि साध्वीश्रीजी के पैर अचानक रुक गए। चिन्ता हो गई क्या करें? साध्वी श्री लावण्यश्रीजी एवं मैं (साध्वी सिद्धान्त) दो ही साध्वियां थी। साध्वी प्रबलयशाजी आदि हमारे से आगे थे। दोपहर तक इन्तजार किया पर पैर उठने का नाम नहीं ले रहे। चिंता चूरण करने वाले करुणासागर ने हमें भिन्न समाचारी में अहमदाबाद भिजवाया।
‘शासनश्री’ साध्वी श्री चन्दनबालाजी एवं साध्वीश्री लावण्य श्रीजी के संयुक्त ।
l अहमदाबाद चातुर्मास प्रवेश के 4 दिन बाद पैर स्लिप होने से लगभग दो माह का Bed rest था। उठना, बैठना, सोना, करवट बदलना भी भारी हो गया किन्तु समभाव से उस वेदना को सहा। उसी अहमदाबाद प्रवास के दौरान Road का कार्य चल रहा था प्रतिदिन की तरह चाय लेने गए तब अलकतरा, डाला हुआ नही था। आए तब गरम-गरम अलकतरा। मैंने और साध्वी श्री जी ने सोचा दो या तीन कदम का रास्ता है, यहीं से निकल जाते हैं। ज्योंहि कदम बढाए, गरम-गरम अलकतरा पदत्राण के चिपक गया। पदप्राण टूट गए हाथों के सहारे बाहर निकलने की कोशिश की गरम-गरम अलकतरा हाथों के चिपक गया। कई दिन तक उस भयंकर वेदना को भी समताभाव से सहा।
l कोविड की महामारी के दौरान चारों और हाहाकार की चपेट में आ गए साध्वी श्री जी और साध्वी दर्शितप्रभाजी दोनों को कोरोना। साध्वी श्रीजी के 50% Lungs effect हुए। ऐसी critical स्थिति! क्या करें, क्या ना करें। उस वक्त भी अपने समताभाव को अखंड रखा। पूज्यप्रवर श्री द्वारा प्रदत्त अमूल्य मंत्र चइत्ता भारहं वासं … का निष्ठा से तन्मयता से जप किया और स्वस्थ बने और तमिलनाडु की यात्रा संभव हो पाई।
जब-जब हम घटनाओं का अवलोकन करते हैं तो लगता है कि उन्होने कर्मों र्की उदीरणा की हो। ऐसे एक नहीं, अनेक घटना प्रसंग हैं, जिसमें लाभा लाभे सुहेदुक्खे... ये सिद्धान्त गाथा चरितार्थ होती है।
समय गोयम मा पमायए :
प्रभु वीर के इस महान संदेश को जीवन के हर क्षण के साथ जीया। प्रमाद कम, अप्रमत्तता ज्यादा। ब्रहमवेला में जागरण, जप, स्वाध्याय में गहरी तल्लीनता।
आयंकदंशी ण करेइ पावं
पापभीरुता इतनी जबरदस्त कि मेरे निमित्त से 6 काय के जीवों को मनसा वाचा कर्मणा कोई कष्ट न हो। हर क्रिया में अच्छी सावधानी, अच्छी जागरुकता हमें देखने को मिली। समय-समय पर हमें भी प्रतिबोध देते कि जीवन में पापभीरुता बढेगी तो मैत्री भाव बढेगा, मैत्री भाव बढेगा तो जीवन सार्थक होगा।
काले कालं समायरे
चारित्र रत्न अंगीकार करने के पश्चात साधु चर्या मे विशेष जागरुकता प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, अर्हत वंदना, प्रवचन, गोचरी, सेवा प्राय: सभी कार्य आगमोक्ति के अनुसार सम्पादित होते। प्रहर रात्रि आने के साथ ही योग निद्रा।
चातुर्मास के इन 14-15 दिनों में उत्तराध्ययन सूत्र के 29वें अध्ययन 'सम्यक्त्व पराक्रम' प्रवचनमाला के अन्तर्गत सम्यक्त्व के महत्त्व को बहुत ही सरल, सहज तरीके से समझाया। सम्यक्त्वी जीव के सात बोलों का बंधन नहीं होता, यह बात हर श्रोता के दिलोदिमाग में बिठा दी। छोटे से लेकर बड़े तक सबके जेहन में बात फिट कर दी। हमारा सम्यकत्व कैसे पुष्ट होता है इसका वर्णन प्रतिदिन छोटे-छोटे प्रयोग कहानी, आगमसूक्त द्वारा बताया। सबको दृढ़ समकितधारी श्रावक-श्राविका बनने की सतत प्रेरणा प्रदान की।
‘इमं शरीरं आणिच्चं, दुल्लहे खलु माणुसे भवे’
ऐसे दुर्लभतम आप्त वचनों को प्रतिपल प्रतिक्षण ध्यान में रख जीवन के हर लम्हे का, हर अवसर का भरपूर लाभ उठाया। अंतिम क्षणों मे खामेमि सव्व जीवे... पक्खी प्रतिक्रमण किया, 84 लाख जीव योनी से खमतखामणा किए।
हम दोनों के सिर पर हाथ रख अमिट वात्सल्य उंडेलते हुए खमतखामणा किये और 15 दिन के त्याग करवाये।
श्रावण कृष्णा अमावस्या के दिन “धम्मं च कुणमाणस्स सफला जंति राइओ” इस आर्षोक्ति को साकार करते हुए पूरा दिन जप में, स्वाध्याय में, सिलाई में व्यतीत हुआ। अंतिम क्षणों में पक्खी प्रतिक्रमण कर 84 लाख जीवयोनि से खमतखामणा कर मानो अपनी आत्मा को अतीव हल्की बना लिया हो।
उपरोक्त सभी आगमोक्तियों को अक्षरशः जीनेवाली उस दिव्य, पवित्र, निर्मल आत्मा के लिए प्रभु का पावन संदेश ! सोहि उज्जुय भुयस्स, धम्मो सुध्दस्स चिट्ठई निव्वाणं परमं जाइ धयसित्तव्व पावए।
जुद्धारिंह खलु दुल्लह:
युद्ध का क्षण दुर्लभ होता है।मानो अंतिम स्थिति मे शरीर और आत्मा के बीच हो रहे उस युद्ध में भी अपनी आत्मा को ही विजयी बनाया और उत्तर कर्णाटक सिन्धनूर तेरापंथ भवन मे अंतिम श्वास लिया।
"चएज्ज देहं ण हु धम्मसासणं"
आगमोक्ति को साकार किया.
ऐसी विजयी यात्रा करने वाली दिव्य आत्मा को श्रद्धाप्रणति।