गुण और मूल स्थान के संदर्भ में लोभ को कम करने का करें प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण
ज्ञान के महासागर आचार्य श्री महाश्रमण जी ने आयारो आगम की अमी वर्षा करते हुए फरमाया कि जो गुण है वह मूल स्थान है, जो मूल स्थान है वह गुण है। इंद्रिय विषय गुण कहलाते हैं। हमारे पास पांच ज्ञानेंद्रियां हैं और पांच कर्मेंद्रियां भी होती हैं। श्रोत्र, चक्षु आदि पांच को ज्ञानेंद्रिय कहा जा सकता है। श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है शब्द और उसका व्यापार है सुनना। चक्षु इंद्रिय का विषय है रूप और व्यापार है देखना। घ्राणेन्द्रिय का विषय है गंध और उसका व्यापार है सूंघना। रसनेन्द्रिय का विषय है रस और उसका व्यापार है चखना। स्पर्शनेन्द्रिय का विषय है स्पर्श और उसका व्यापार है छूना। प्रत्येक इंद्रिय का अपना-अपना विषय है और अपना-अपना व्यापार है। ये मूल स्थान लोभ के निमित्त बनते हैं। इन विषयों के प्रति प्राणी को आकर्षण हो सकता है।
चार कषायों में चौथा अंग लोभ है। मोहनीय कर्म के मूल दो भेद हैं- चारित्र मोहनीय और दर्शन मोहनीय। चारित्र मोहनीय की पच्चीस प्रवृत्तियां और दर्शन मोहनीय की तीन प्रवृत्तियां हैं। यह मोहनीय कर्म का परिवार है। आठ कर्मों में जीव के पाप लगाने में जिम्मेदार कोई है तो वह मोहनीय कर्म है। शेष तीन घाति कर्म आत्मा को मलिन बना सकते हैं। ये तो अपना काम कर देते हैं, पर इनको लगाने वाला मोहनीय कर्म ही है। चार घाति कर्म एकांत अशुभ हैं, पाप हैं। चार अघाति कर्म पुण्यात्मक भी हैं और पापात्मक भी हैं।
आठ कर्मों में 75% तो पाप कर्म हैं, 25% पुण्य कर्म हैं। इस तरह 8 कर्मों में पुण्य-पाप को जान सकते हैं। लोभ के आधार पर इंद्रिय विषय बनते हैं। दसवें गुणस्थान तक लोभ रहता है। लोभ साधुओं में भी रह सकता है, प्रमाद रूप में लोभ हो सकता है। गृहस्थों में भी पदार्थ के प्रति लोभ जागृत हो सकता है। मान, प्रतिष्ठा, पद में भी लोभ की चेतना काम कर सकती है। व्यवस्था के संदर्भ में पद की अपेक्षा भी होती है, पद से पावर मिलता है और पावर से काम हो सकता है, इससे कार्य का संचालन सुचारु रूप से हो सकता है। पद से आदमी की शोभा होती है तो आदमी से पद की शोभा होती है। प्राणी लोभ के कारण हिंसा में जा सकता है, झूठ बोल सकता है, हमारी इंद्रिय विषयों के प्रति अनासक्ति रहे, ज्ञाता द्रष्टा भाव रहे, ज्यादा लोभ में न जाएं। हम गुण और मूल स्थान के संदर्भ में लोभ को कम करने का प्रयास करें।
साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने मंगल उद्बोधन देते हुए कहा कि आध्यात्मिक जगत में भगवान और भक्ति का संबंध चल रहा चला आ रहा है। भक्ति के साथ अध्यात्म की मनोकामना जोड़ने से उसमें पवित्रता बनी रहती है। कामना तीन प्रकार की बताई गई है- अधम, मध्यम और उत्तम। यश-कीर्ति प्राप्त करने की कामना नहीं रहनी चाहिए, अध्यात्म की प्राप्ति की कामना करना ही श्रेष्ठ कामना होती है। बालिका प्रिया सोनी ने चौबीसी के गीत का संगान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।