धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

(पिछला शेष)
जो खान-पान आदि का आकर्षण छोड़ देता है, अध्ययन के लिए अपने आपको समर्पित कर देता है और घो. घोकना (रटना), चि. चितारना (पुनरावर्तन करना दोहराना), पू.- पूछना (प्रश्न करना), लि. लिखना (नोट कर लेना) करता रहता है। तब व्याकरण (ग्रामर) पर अधिकार प्राप्त हो सकता है। व्याकरण की तरह अन्य विषयों पर भी यह बात लागू होती है।
स्वाध्याय के पाच प्रकार प्रत्येक प्रशिक्षु व प्रशिक्षक के लिए मननीय हैं। उनके प्रयोगों से ज्ञान का विकास
किया जा सकता है। विकास के अभिप्सु व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वह अपने जीवन के अमूल्य समय एवं श्रम को स्वाध्याय में व्यतीत करें।
समाधि-वृद्धि का प्रयोग
समाधि को प्राप्ति में तीन बाधाएं हैं- उपाधि, आधि और व्याधि। भावनात्मक अस्वास्थ्य उपाधि, मानसिक अस्वास्थ्य आधि और शारीरिक अस्वास्थ्य व्याधि है। यह लिखना मुझे असंगत नहीं लगता कि बहुत-सी शारीरिक व मानसिक बीमारियों का बीज भावनात्मक असन्तुलन है। इसलिए उपाधि को दुःख का मूल कहा जा सकता है। दुःख-मुक्त होने के लिए उपाधिमुक्त होना आवश्यक प्रतीत होता है। उपाधि-मुक्ति के अनेक प्रयोग हैं। उनमें एक प्रयोग है ध्यान। ज्यों-ज्यों उपाधि परित्यक्त होती है, त्यों-त्यों समाधि प्रवृद्ध होती है। समाधि का तात्पर्य है पूर्ण एकाग्रता और सहज सुख अथवा शान्ति।
निर्जरा के बारह भेदों में ग्यारहवां भेद है ध्यान। वह आत्म साक्षात्कार और कर्म-मल-शुद्धि का बहुत सशक्त साधन बन सकता है। वह आत्म साक्षात्कार अथवा स्वरूप-प्राप्ति का साधन क्यों बनता है? इस प्रश्न पर विचार करने पर अथवा विचारातीत भूमिका के गवाक्ष से देखे जाने पर मुझे एक दार्शनिक पृष्ठभूमि दिखाई देती है- आत्मा चेतन-स्वरूप है। वह पुद्गल अर्थात स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण के स्वरूप वाली नहीं है। सोचना, बोलना और शारीरिक चेष्टाएं आत्मा को पुद्गल सापेक्ष प्रवृत्तियां हैं। ध्यान का अर्थ है चिन्तन से अचिन्तन, भाषण से अभाषण और क्रिया से अक्रिया की दिशा में गति। ध्यान का अन्तिम साध्य है आत्म-स्वरूप यानी अमन, अवाक् और अक्रिया की स्थिति की प्राप्ति, जहां आत्मा पुद्गलनिरपेक्ष और पूर्णतया स्व-स्थित हो जाती है। उसका साधन बनता है इन्हीं का अभ्यास।
ध्यान में साधक शरीर को स्थिर व शिथिल करता है। इसका अर्थ है कि वह
अपने अक्रिय स्वरूप की ओर गति कर रहा है। ध्यान में साधक मौन करता है। इसका तात्पर्य है कि वह अपने 'अवचन' स्वरूप की ओर गति कर रहा है। ध्यान से साधक मन को एकाग्र अथवा विलीन करने का प्रयोग करता है। इसका अर्थ है कि वह अपने 'अमन' स्वरूप की ओर प्रयाण कर रहा है। ऐसा लगता है कि अमन अथवा निर्विचारता की भूमिका में आन्तरिक प्रसन्नता अनुभूत होती है। जैसा कि पातंजल योगदर्शन में कहा गया है-
निर्विचारैशारदेऽध्यात्मप्रसादः।'
पूर्वकृत चर्चा से स्पष्ट हो जाता है कि ध्यान के तीन आयाम हैं- कायिक स्थिरता, मौन और मानसिक शुभ एकाग्रता अथवा अमन की स्थिति। ध्यान योग से अयोग, प्रवृत्ति से निवृत्ति और दुरुपयोग से शुद्धोपयोग की स्थिति को प्राप्त करने का मार्ग है। वह आध्यात्मिक जगत् का प्रतिष्ठित शब्द है।
जब तक शरीर है व्यक्ति दिन-रात एक स्थान में बैठकर ध्यान नहीं कर सकता। उसे चलना भी होता है, खाना भी होता है और भी अनेक कार्य करने होते हैं। इस स्थिति में वह निरंतर ध्यान कैसे कर सकता है? सब क्रियाएं करते हुए भी व्यक्ति काफी हद तक ध्यान कर सकता है। साधक चल रहा है। चलना उसके लिए जरूरी है। पर विचारों के प्रवाह में बहना तो जरूरी नहीं है। वह चलते हुए भी मानसिक ध्यान कर सकता है। अपने मन को चलने में एकाग्र कर दे। बोले नहीं यह वाचिक ध्यान हो गया। चलने के सिवाय अनावश्यक इधर-उधर न देखे-यह आंशिक कायिक ध्यान हो गया।