श्रमण महावीर
भगवान् ने कुल मिलाकर सोलह दिन-रात निरन्तर ध्यान-प्रतिमा की साधना की।
भगवान् ध्यान के समय ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक्-तीनों को ध्येय बनाते थे। ऊर्ध्व लोक के द्रव्यों का साक्षात् करने के लिए वे ऊर्ध्व-दिशापाती ध्यान करते थे। अधो लोक के द्रव्यों का साक्षात् करने के लिए वे अधोदिशापाती ध्यान करते थे। तिर्यक् लोक के द्रव्यों का साक्षात् करने के लिए तिर्यक्-दिशापाती ध्यान करते थे।'
ध्येय का परिवर्तन भी करते रहते थे। उनके मुख्य ध्येय ये थे-
१. ऊर्ध्वगामी, अधोगामी और तिर्यग्गामी कर्म ।
२. बंधन, बंधन-हेतु और बंधन-परिणाम ।
३. मोक्ष, मोक्ष-हेतु और मोक्ष-सुख ।
४. सिर, नाभि और पादांगुष्ठ।
५. द्रव्य, गुण और पर्याय।
६. नित्य और अनित्य ।
७. स्थूल-संपूर्ण जगत् ।
८. सूक्ष्म-परमाणु ।
६. प्रज्ञा के द्वारा आत्मा का निरीक्षण ।
भगवान् ध्यान की मध्यावधि में भावना का अभ्यास करते थे। उनके भाव्य-विषय ये थे-
१. एकत्व-जितने संपर्क हैं, वे सब सांयोगिक हैं। अंतिम सत्य यह है कि आत्मा अकेला है।
२. अनित्य-संयोग का अन्त वियोग में होता है अतः सब संयोग अनित्य हैं।
३. अशरण-अंतिम सचाई यह है कि व्यक्ति के अपने संस्कार ही उसे सुखी और दुःखी बनाते हैं। बुरे संस्कारों के प्रकट होने पर कोई भी उसे दुःखानुभूति से बचा नहीं सकता।
भगवान् ध्यान के लिए प्रायः एकान्त स्थान का चुनाव करते थे। वे ध्यान खड़े और बैठे-दोनों अवस्थाओं में करते थे। उनके ध्यानकाल में बैठने के मुख्य आसन थे-पद्मासन, पर्यंकासन, वीरासन, गोदोहिका और उत्कटिका ।
भगवान् ध्यान की श्रेणी का आरोहण करते-करते उसकी उच्चतम कक्षाओं में पहुंच गए। वे लम्बे समय तक कायिक-ध्यान करते। उससे श्रान्त होने पर वाचिक और मानसिक। कभी द्रव्य का ध्यान करते, फिर उसे छोड़ पर्याय के ध्यान में लग जाते। कभी एक शब्द का ध्यान करते, फिर उसे छोड़ दूसरे शब्द के ध्यान में प्रवृत्त हो जाते।
भगवान् परिवर्तनयुक्त ध्येय वाले ध्यान का अभ्यास कर अपरिवर्तित ध्येय वाले ध्यान की कक्षा में आरूढ़ हो गए। उस कक्षा में वे कायिक, वाचिक या मानसिक-जिस ध्यान में लीन हो जाते, उसी में लीन रहते। द्रव्य या पर्याय में से किसी एक पर स्थित हो जाते। शब्द का परिवर्तन भी नहीं करते। वे इस कक्षा का आरोहण कर श्रांति की अवस्था पार कर गए।
भगवान् की ध्यानमुद्रा अनेक ध्यानाभ्यासी व्यक्तियों को आकृष्ट करती रही है। उनमें एक आचार्य हेमचन्द्र भी हैं। उन्होंने लिखा है-
'भगवान् ! तुम्हारी ध्यानमुद्रा-पर्यंकशायी और शिथिलीकृत शरीर तथा नासाग्र पर टिकी हुई स्थिर आखों में साधना का जो रहस्य है, उसकी प्रतिलिपि सबके लिए करणीय है।'