आत्म परिमार्जन का संदेशवाहक पर्युषण महापर्व
भगवान महावीर ने साधक जीवन के लिए कुछ करणीय एवं चिन्तनीय बिन्दु प्रस्तुत किए। मैंने क्या किया? मेरे लिए क्या करणीय शेष है? और क्या मैं कर सकता हूं पर प्रमादवश नहीं कर पा रहा हूं? ये चिन्तनीय प्रश्न भौतिक दृष्टि से नहीं अपितु आत्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से है। भौतिक जगत में शरीर और परिवार के लिए तो चिन्तन चलता ही रहता है किन्तु आत्मिक व आध्यात्मिक दृष्टि से चिन्तन-मनन करने वाले विरले ही होते हैं। भौतिक जगत तो केवल इस शरीर तक सीमित है, क्योंकि शरीर छूटने के साथ ही परिवार और पदार्थ यहीं छूट जाते हैं, साथ में जाते हैं व्यक्ति के शुभ-अशुभ कर्म यानि पुण्य और पाप। जीवन में प्रवृत्ति के अनुसार कर्म का बंधन होता रहता है। प्रवृत्ति मात्र बंधन का कारण है चाहे शुभ हो अथवा अशुभ। जब तक व्यक्ति सिद्धत्व, बुद्धत्व, मुक्तत्व को प्राप्त नहीं कर लेता, कर्म बंधन का यह क्रम निरन्तर चलता रहता है।
यद्यपि एक श्रावक गृहस्थ जीवन में रहता हुआ पूर्ण रूप से सावद्य प्रवृति से मुक्त नहीं रह सकता किन्तु लक्ष्यपूर्वक ध्यान दे तो अनेक प्रकार से सावद्य प्रवृत्ति से मुक्त रह सकता है, जिससे पाप कर्म का बन्धन न हो। यदि व्यक्ति ध्यान दे और कार्य अनासक्त भावों से करे तो भी निकाचित कर्म से मुक्त रह सकता है।
छह खंड के साम्राज्य के स्वामी भरत चक्रवर्ती ने राज्य संचालन करते हुए केवलज्ञान का वरण कर लिया क्योंकि उनके मन में, चिन्तन में कोई आसक्ति का भाव नहीं था।
जैन परम्परा में चातुर्मासकाल में आने वाला पयुर्षण महापर्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समय माना गया है। इस अवसर पर प्रत्येक जैन धर्मावलम्बी को विशेष रूप से अनासक्त चेतना के जागरण का प्रयास करना चाहिए। अनासक्त चेतना के जागरण होने पर ही व्यक्ति के दृष्टिकोण में बदलाव होने लगता है और व्यक्ति संयम साधना व धर्माराधना की ओर प्रवृत्त हो जाता है। पयुर्षणकाल में यदि व्यक्ति अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्त होने का लक्ष्य रखता है तो उसके लिए भी यह अति उत्तम बात है। जैन परम्परा में प्राचीनकाल से ही आध्यात्मिक अनुभूति कराने वाला यह महत्वपूर्ण पर्व है। मर्यादित, संस्कारित और जीवन पद्धति को सुव्यवस्थित कराने वाला यह पर्व है। दिव्यता और भव्यता का सृजन और आत्मा का परिमार्जन कराने वाला पर्व है। सहिष्णुता, कोमलता, सरलता, स्नेहभाव और पारस्परिक सौहार्द को संचार कराने वाला यह पर्व महापर्व कहलाता है। यह जाने-अनजाने में हुई भूलों के परिष्कार का पर्व है। सकारात्मक सोच के साथ आत्मचिंतन, आत्ममंथन तथा आत्मावलोकन के साथ मनाने से ही इस पर्व की सार्थकता को सिद्ध किया जा सकता है।
इस अवसर पर प्रत्येक धर्माराधक व्यक्ति को निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देने की महनीय अपेक्षित लगती है- गुरु के प्रति सर्वात्मा समर्पण, सम्यक् दृष्टिकोण, मनोनियंत्रण का भाव, क्रोध पर नियंत्रण, अपनी गलतियों के प्रति अपराध बोध, दूसरों की आलोचना से बचाव, नियमों के पालन में दृढ़ता, परिषहों को पुरस्कार समझने की भावना, निर्णय शक्ति का विकास - ये कुछ ऐसे बिन्दु हैं जिनके द्वारा बिन्दु से सिन्धु, भक्त से भगवान, आत्मा को परमात्मा बनाने की दिशा में अपनी अहं भूमिका अदा कर सकते है। आवश्यकता है पर्व के हार्द को समझें और उसी दिशा में प्रस्थान करने का लक्ष्य बनाएं। तथा स्वाध्याय, ध्यान, तप, जप के साथ आत्मा को निरन्तर भावित करें। इस अवसर पर केवल क्षमायाचना नहीं बल्कि साथ में खमत-खामणा करें अर्थात् क्षमा का आदान-प्रदान करें। क्षमा मांगना आसान है किन्तु क्षमा देना तो बहुत ही कठिन नहीं अपितु महाकठिन है। यह कठिनतम कार्य पयुर्षण पर्व की आराधना करने वाले को सिद्ध, बुद्ध मुक्त बनाने में अपनी अहं भूमिका निभा सकता है। इससे परिवार, समाज, राष्ट्र विघटन से बच जाता है।
WW भगवान ऋषभ से भगवान महावीर पर्यन्त सभी तीर्थंकर, आचार्य परम्परा में सभी आचार्य, साधु-साध्वियां, श्रावक-श्राविकाओं ने पयुर्षण की आराधना कर मुक्त होने की दिशा में प्रस्थान किया है, करते हैं और करते रहेगें।