अलोभ और संतोष की साधना से लोभ को जीतें : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अलोभ और संतोष की साधना से लोभ को जीतें : आचार्यश्री महाश्रमण

जिनशासन भास्कर युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आयारो आगम की विवेचना कराते हुए फरमाया कि हमारी चेतना में लोभ भी विद्यमान है तो साथ में अलोभ की चेतना भी भीतर में होती है। लोभ भी एक भाव है, चित्त धर्म है, औदायिक भाव है। अलोभ भी एक चित्त धर्म है, जो मोहनीय कर्म के विलय से सम्बद्ध है।
वीतराग बनने के लिए लोभ से मुक्त होना जरूरी है और मोक्ष की प्राप्ति के लिए वीतरागता जरूरी है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए केवलज्ञान-केवलदर्शन की प्राप्ति भी जरूरी है। जिसका क्षीण मोह नष्ट हो जायेगा वह वीतराग बन जाता है, उसे तुरंत केवलज्ञान-केवलदर्शन की प्राप्ति होती ही है। आठों कर्मों की मुक्ति प्राप्त करना मोक्ष के लिए आवश्यक होता है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए वीतरागता एक कसौटी है। सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए दर्शन मोहनीय का विलय आवश्यक है, साथ में अनन्तानुबंधी कषाय का विलय भी आवश्यक है। अनन्तानुबंधी चारित्र मोहनीय का ही अंग है। प्रश्न होता है कि दर्शन मोहनीय के साथ चारित्र मोहनीय की बात कैसे आयी? केवलज्ञान प्राप्ति के लिए ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय तो जरूरी है, पर वीतरागता क्यों जरूरी है? मोहनीय कर्म का क्षय होगा, तभी ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होगा, यह सहज नियम है। केवलज्ञान का सीधा सम्बन्ध मोहनीय कर्म से नहीं है पर उसकी प्राप्ति के लिए मोहनीय कर्म का पहले क्षय होना जरूरी है। उसके बाद ही ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होगा। इसी प्रकार सम्यक्त्व का सीधा सम्बन्ध दर्शन मोहनीय से है तो साथ में अनन्तानुबंधी का विलय होता है, तभी दर्शन मोह के विलय की बात साथ हो सकती है। यह एक सहज प्रकृतिवत नियम है। अनन्तानुबंधी का विलय होगा तो ही सम्यक्त्व टिक सकेगा।
लोभ की वृत्ति सामान्य मनुष्यों में होती है। यहां तक की साधु में भी लोभ की चेतना विद्यमान होता है। कहा गया है कि दसवें गुणस्थान तक भी लोभ का अंश रहता ही है। आदमी लोभ को प्रतनु बनाए, इसका प्रयास करना चाहिए। आयारो आगम में एक निर्देश दिया गया है कि मानव अलोभ से, संतोष की साधना से लोभ को जीतें, लोभ को खत्म करें। हमारे भीतर कोरा लोभ ही नहीं है, अलोभ भी हमारे भीतर है। अलोभ की भावना जितनी पुष्ट होती जाएगी, संतोष की अनुप्रेक्षा जितनी पुष्ट होगी, लोभ उतना प्रतनु हो सकता है।
लोभ उदय भाव है, अलोभ क्षयोपशम भाव है, दोनों में संघर्ष चले। अलोभ के धर्म को हम और जागृत करने का प्रयास करें। इसके लिए अनुप्रेक्षा करें। लोभ का प्रतिपक्ष संतोष है। श्रावक के बारह व्रतों में पांचवां व्रत है- इच्छा परिमाण। पदार्थों के उपभोग में सीमा करना और संतोष रखने का प्रयास हो। ज्यादा कमाई के लिए आदमी को ठगी, चोरी और बेईमानी से बचने का प्रयास करना चाहिए। मानव के जीवन में संतोष रूपी धन का विकास होना चाहिए। गृहस्थ भी अपने जीवन में लोभ को अलोभ से जीतने का प्रयास करे।
मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्य प्रवर ने मुनि गजसुकुमाल के जीवन प्रसंगों का सुन्दर रूप में वर्णन किया। पावन प्रवचन व आख्यान के उपरान्त अनेक तपस्वियों ने अपनी-अपनी तपस्या का आचार्यश्री के श्रीमुख से प्रत्याख्यान किया। तेरापंथ कन्या मण्डल, सूरत ने चौबीसी के गीत का संगान किया। प्रताप सिंह सिंघी ने अपनी पुस्तक ‘सचित्र प्रज्ञावान बनो’ आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित की। डॉ. कुसुम लुणिया ने अपनी पुस्तक ‘सर्वोत्तम जीवनशैली’ को आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित किया। इस संदर्भ में डॉ. लुणिया ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।