अनासक्ति, अपरिग्रह और अमूर्च्छा भाव से मिल सकती है सिद्धि : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अनासक्ति, अपरिग्रह और अमूर्च्छा भाव से मिल सकती है सिद्धि : आचार्यश्री महाश्रमण

तेरापंथ के सारथी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि आयारो आगम में कहा गया है कि कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं, जिनके मन में यह संकल्प होता है कि हम दीक्षित होंगे, संन्यास लेंगे और अपरिग्रही होंगे। इस संकल्प से वे प्रव्रजित हो जाते हैं परन्तु प्रव्रजित होने के बाद भी वे पदार्थों में, परिग्रह में उलझ जाते हैं। परिग्रह के दो भाग हो जाते हैं- एक तो मूर्च्छा परिग्रह, भीतर का मोह, आसक्ति। इससे साधु को मुक्त रहना चाहिये। दूसरा है- बाह्य परिग्रह। बाह्य परिग्रह आभ्यंतर परिग्रह का निमित्त बन सकता है। साधु अपने जीवन में बाह्य और आभ्यांतर दोनों प्रकार परिग्रहों से बचने का प्रयास करना चाहिए। आवश्यक चीजों को साथ रखा जा सकता है, किन्तु साधु को अनावश्यक पदार्थों का संग्रह नहीं करना चाहिए।
साधु के लिए सुन्दर शब्द है- ‘अप्पोवहि’। साधु को अल्पोपधि वाला होना चाहिये। अन्यथा प्रतिलेखन बढ़ जायेगा। ज्यादा चीजें रहने से वहां जीव-जन्तुओं का समावेश हो सकता है, जीवों की विराधना हो सकती है। हिंसा और परिग्रह दोनों दृष्टि से अल्पोपधि होना साधु के लिए हितकर हो सकता है। भरपूर परिग्रह में भरत चक्रवर्ती की तरह अनासक्ति का भाव आ जाये। आसक्ति आने से साधना में बाधा उपस्थित हो सकती है। साधना में निर्मलता रहे, अनासक्ति की भावना रहे। जब तक परिग्रह रहेगा, साधना में सिद्धि नहीं मिलेगी। अनासक्ति, अपरिग्रह और अमूर्च्छा भाव से सिद्धि मिल सकती है। लब्धियां अनेक हो सकती हैं, पर वीतरागता से बड़ी लब्धि कोई नहीं है। साधु लुक-छिपकर भी परिग्रह न रखे, यह तो एक तरह की माया हो जाती है। गृहस्थ से साधु कितना ऊंचा हो जाता है, कारण कि साधु के महाव्रतों की साधना है। अपरिग्रह की साधना उच्चपद की साधना है। अपरिग्रह की साधना करने वाला संयम की अच्छी साधना कर सकता है। मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्य प्रवर ने गजसुकुमाल मुनि के आख्यान क्रम को आगे बढ़ाया।
 पूज्य प्रवर के प्रवचन से पूर्व साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि श्रेष्ठ लक्ष्य और पवित्र पुरुषार्थ की प्रेरणा देने वाली, मनुष्य जीवन को जागरूक करने वाली आगमवाणी है। मनुष्य भव को प्राप्त करने का लक्ष्य है पूर्व संचित कर्मों को खपाना, आत्मा को पवित्र बनाना। लोगस्स का छठा पद्य कीर्तन-वन्दन से प्रारंभ होता है और उत्तम समाधि पर विराम लेता है। कीर्तन में तीन शक्तियां कार्य करती हैं- पहली शब्द शक्ति, दूसरी मानस शक्ति और तीसरी भगवत शक्ति। ये तीन शक्तियां मिलकर एक महाशक्ति को प्रकट करती है। श्रद्धापूर्वक कीर्तन करने से वीतराग के गुण हम में भी प्रकट हो सकते हैं। मंगल प्रवचन व आख्यान के उपरान्त अनेक तपस्वियों ने अपनी-अपनी तपस्या का प्रत्याख्यान किया। तेरापंथ कन्या मण्डल-सूरत ने चौबीसी के गीत का संगान किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।