धर्म है उत्कृष्ट मंगल
ध्यान निवृत्ति का मार्ग है। स्वाध्याय प्रवृत्ति है। वह भी अपेक्षित है। ध्यान के साथ उसका भी महत्त्व है। स्वाध्याय का अर्थ है- साधना के बारे में जानकारी या मार्गदर्शन प्राप्त करना। साधना की ओर अग्रसर करने वाली प्रवृत्ति का नाम है शुभ योग।
साधना की दृष्टि से तीन शब्द ज्ञातव्य हैं-
१. अशुभ योग
२. शुभ योग
३. अयोग।
'योग' शब्द का अर्थ है- प्रवृत्ति। अध्यात्म या साधना से दूर करने वाली मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति का नाम है अशुभ योग। अर्थात् राग- द्वेष या कषाय की प्रवृत्ति अथवा उससे जनित प्रवृत्ति अशुभ योग है। हमारी साधना में अवरोध और अवनति पैदा करने वाला तत्त्व कषाय है। उससे होने वाली प्रवृत्ति अशुभ योग है। साधक को सबसे पहले ध्यान देना होता है कि वह अशुभ योग से सर्वथा अथवा अधिक से अधिक बचे।
राग-द्वेष-रहित तथा अध्यात्म की ओर अग्रसर करने वाली मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति का नाम शुभ योग है। उदाहरणार्थ साधु-पुरुषों का संग
करना, उनका उपदेश सुनना, विनय करना, आध्यात्मिक साहित्य का स्वाध्याय करना आदि-आदि।
शुभ योग भी एक साधन है। साधन किसी अवस्था में अवश्य त्याज्य होता है। जब तक मनुष्य शुभ योग को भी छोड़ नहीं देता है वह मुक्तावस्था को उपलब्ध नहीं होता। मुक्तावस्था प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि साधक अयोगी बने। जैन साधना-पद्धति के अनुसार साधना की चौदह भूमिकाएं हैं- उनमें चौदहवीं भूमिका है- अयोगी केवली गुणस्थान। इस स्थिति में साधक सर्वथा अप्रकम्प-चंचलतारहित बन जाता है और चंद क्षणों में वह शरीर का त्याग कर मुक्तावस्था को प्राप्त हो जाता है। इससे हमने जाना कि शुभ योग भी सदा स्थायी नहीं है। साधना की पूर्णता प्राप्त करने के लिए उसका भी विच्छेद करना होता है। इसीलिए ध्यान की एक परिभाषा की गई ''योग-निरोधो ध्यानम्''- योग (मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति) के निरोध का नाम ध्यान है। कोई भी क्रिया करते हुए साधक को यह ध्यान देना चाहिए कि उसके द्वारा केवल आवश्यक प्रवृत्ति हो, अनावश्यक कुछ भी प्रवृत्ति उसके द्वारा न हो। इस चर्चा का निष्कर्ष है साधना के लिए १. अनावश्यक प्रवृत्ति न करना। २. आवश्यक प्रवृत्ति भी समता भाव से करना। ध्यान के संबंध में कहा गया है-
सीसं जहां सरीरस्स, जहां मूलं दुमस्स य।
सव्वस्स साहु धम्मस्स, तहा झाणं विधीयते।।
'धर्म में ध्यान का वही मूल्य है जो शरीर में सिर का और वृक्ष में जड़ का होता है।'
ध्यान के प्रकार
आगमों में ध्यान के चार प्रकार निर्दिष्ट हैं- आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान। 'ठाणं' में इनकी विवेचना प्राप्त होती है। वहां उल्लिखित है कि आर्त्त ध्यान चार प्रकार का होता है-
१. अमनोज्ञ– संयोग से संयुक्त हो जाने पर उसके वियोग की चिन्ता में लीन हो जाना।
२. मनोज्ञ– संयोग से संयुक्त होने पर उसके वियोग न होने की चिन्ता में लीन हो जाना।
३. आतंक– सद्योघाती रोग के संयोग से संयुक्त होने पर उसके वियोग की चिन्ता में लीन हो जाना।
४. प्रीतिकर– कामभोग के संयोग से संयुक्त होने पर उसके वियोग न होने की चिन्ता में लीन हो जाना।
आर्त्त ध्यान के चार लक्षण हैं- आक्रन्दन करना, शोक करना, आंसू बहाना, विलाप करना।
रौद्र ध्यान चार प्रकार का होता है-
१. हिंसानुबंधी– जिसमें हिंसा का अनुबन्ध (सतत प्रवर्तन) हो।
२. मृषानुबंधी– जिसमें मृषा (असत्य) का अनुबन्ध हो।
३. स्तेयानुबन्धी– जिसमें चोरी का अनुबन्ध हो।
४. संरक्षणानुबन्धी– जिसमें विषय के साधनों के संरक्षण का अनुबन्ध हो।