संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

यहीं से द्वेष बढ़ता है। प्रमाद, असावधानी, आलस्य तमोगुणी व्यक्ति का लक्षण है। प्रमादी व्यक्ति अकारण ही हिंसा कर बैठता है। 
अपने प्रयोजन के लिए मनुष्य पाप-कर्म करता है, अधर्म-व्यापार करता है, यह स्वाभाविक है परंतु बिना प्रयोजन, बिना स्वार्थ, व्यर्थ में अधर्म व्यापार करना, बुरे कार्य करना कहां तक उचित है? बिना मतलब किसी पाप कार्य में प्रवृत्ति करने का त्याग करना, अनर्थ-दण्ड विरति व्रत है। गृहस्थ को अपने स्वार्थ के लिए सब कुछ करना 
पड़ता है। आठवां व्रत हमें यह सिखाता है कि कम-से-कम अनर्थ  
पाप से तो बचें। बिना प्रयोजन चलते-फिरते किसी को मार डालना, गाली देना, झगड़ा करना, ईर्ष्या करना, द्वेष करना, वनस्पति को कुचलते हुए चलना, बत्ती को जलाकर छोड़ देना, घी-तेल के बर्तनों 
को खुला छोड़ देना इत्यादि ऐसे अनेक काम हैं जिनसे बचना या 
परहेज करना अहिंसा की दृष्टि से तो प्रशंसनीय है ही किन्तु व्यवहार दृष्टि से भी अच्छा है।
दिग्विरति, भोगोपभोग विरति और अनर्थदंड विरति-ये तीनों व्रत अणुव्रतों के पोषक हैं, अतः इन्हें गुणव्रत कहा गया है।
३४. सावद्ययोगविरतेरभ्यासो जायते ततः। 
        समभावविकासः स्यात्, तच्च सामायिकं व्रतम्।।
जिससे सावद्य-पापकारी प्रवृत्तियों से निवृत्त होने का अभ्यास होता है, समभाव का विकास होता है, वह 'सामायिक' व्रत कहलाता है।
धर्म समतामय है। राग-द्वेष विषमता है। समता का अर्थ है राग-द्वेष का अभाव। विषमता है राग-द्वेष का भाव। समभाव की आराधना के लिए सामायिक व्रत है। एक मुहूर्त तक सावद्य प्रवृत्ति का त्याग करना सामायिक व्रत है।
यह आत्मविकास की सुन्दर प्रक्रिया है। पूर्वोक्त व्रतों की अपेक्षा इसमें आत्मा का सान्निध्य अधिक साधा जाता है। इसका काल-मान ४८ मिनट का है। इसमें मानसिक, वाचिक और कायिक समस्त असत् प्रवृत्तियों का परित्याग किया जाता है। सर्वारंभ-परित्यागी शब्द से सामायिक की तुलना की जा सकती है। यह स्थूल रूप से मुनि जीवन की-सी साधना है। साधक यहां आकर समता में लीन हो जाता है। उसका मन लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान आदि द्वन्द्वों में सम बन जाता है। 'समलोष्टकांचनः' उसके लिए पत्थर और सोना एक समान है। गीता में जो भक्त के लक्षण हैं वे समभावी व्यक्ति के जीवन में अक्षरशः चरितार्थ होते हैं-जो न प्रसन्न होता है, न द्वेष करता है, न दुःख मानता है, न इच्छा करता है और जिसने भले और बुरे दोनों का परित्याग कर दिया है इस प्रकार जो मेरी भक्ति करता है, वह मुझे प्रिय है। जो शत्रु और मित्र दोनों के साथ एक-सा बर्ताव करता है, जो सर्दी-गर्मी और दुःख-सुख में एक जैसा रहता है और जो आसक्ति से रहित है, वह मुझे प्रिय है।'
ईसा के शब्दों में-'वह अपने सूर्य को बुरे और भले दोनों पर उदित करता है और वर्षा को न्यायी और अन्यायी दोनों पर बरसाता है।'
३५. सावधिकञ्च हिंसादेः, परित्यागो यथाविधि। 
        क्रियते व्रतमेतत्तु, देशावकाशिकं भवेत्॥
एक निश्चित अवधि के लिए विधिपूर्वक जो हिंसा का परित्याग किया जाता है वह 'देशावकाशिक' व्रत कहलाता है।