प्रमाद के कारण अनेक योनियों में जाती है आत्मा : आचार्यश्री महाश्रमण
महावीर समवसरण में महावीर के प्रतिनिधि आचार्य श्री महाश्रमणजी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि आयारो आगम में कहा गया है - प्राणी अनेक योनियों में जाता है। कभी किसी योनि में, कभी किसी दूसरी योनि में, और नाना प्रकार के आघातों का अनुभव करता है। वह कष्ट भी भोगता है। इसका क्या कारण है? इसका कारण यह है कि अपने प्रमाद से जीव अनेक रूपों वाली योनियों में जाता है और आघातों का अनुभव करता है। सुख-दुःख का कर्ता स्वयं आत्मा है। दूसरे निमित्त बन सकते हैं, पर खुद के किए कर्म ही कष्ट प्रदान करने वाले होते हैं। जीव प्रमाद करता है, पाप का आचरण करता है, ऐसे कर्म का बंध कर लेता है कि फिर उसे भोगना पड़ता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति को यह सोचना चाहिए कि मेरे सुख-दुःख के जिम्मेदार दूसरे नहीं हैं, मैं ही हूं।
पूज्य जयाचार्य ने भी 'आराधना की ढाल' में बताया है - किए गए कर्म ही सुख-दुःख का कारण होते हैं। व्यक्ति अप्रमाद में रहे, अशुभ योगों में जाने से बचने का प्रयास करे। योगों का अलग-अलग व्यापार होता है। यदि साधु अप्रमाद में है, और उससे अनजाने में किसी जीव की हिंसा हो जाती है, तो उसे पाप नहीं लगता। सामान्य नियम अलग हैं और विशेष नियम अलग हैं। अपवाद की स्थिति में साधु सामान्य नियम से हटकर कार्य करते हैं, तो उन्हें दोष नहीं लगता। ऊपरले आख्यान में पूज्यवर ने मुनि गजसुकुमाल के आख्यान के माध्यम से उनके मोक्षगामी होने की बात फरमाई।
साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि 'चतुर्विंशति स्तव' भक्ति का एक अद्भुत स्वरूप है। भक्ति दो प्रकार की होती है - सकाम भक्ति और निष्काम भक्ति। 'चतुर्विंशति स्तव' में मांग की गई है, पर वह हमें निष्काम भक्ति की ओर ले जाने वाली है। इसके साथ आत्म-शुद्धि और आत्म-विकास का भाव जुड़ा हुआ है। इसमें उच्च कोटि की मुक्ति की कामना की गई है।
मुनि निकुंज कुमार जी ने अपनी जन्मभूमि पर परमपावन का स्वागत करते हुए अपनी भावना अभिव्यक्त की। प्रभा जैन, विनोद मरोठी आदि ने पूज्यप्रवर के समक्ष 'रश्मियां रश्मिरथ की, गाथा महाश्रमण की’ विशेषांक को लोकार्पित किया। इस संदर्भ में प्रभा जैन ने अपने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।