संयम और तप से आत्मा को करें भावित : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

संयम और तप से आत्मा को करें भावित : आचार्यश्री महाश्रमण

जिनशासन प्रभावक आचार्य श्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि जो परिग्रही होता है, परिग्रह में अनुरक्त रहता है, इस मोह-माया की दुनिया में रमण करने वाला होता है और बाह्य आकर्षणों से आक्रांत रहता है, इन्द्रिय विषयों के सेवन में रचा-पचा रहता है, ऐसा जो प्रमादी-परिग्रहग्राही व्यक्ति होता है, उसे मानो पता भी नहीं है कि उसे कभी आगे भी जाना है। वह अमर की तरह व्यवहार करता है। जहां परिग्रह का शासन है और चेतना आसक्ति में निमग्न है, ऐसे व्यक्ति के जीवन में न तप दिखाई देता है, न दम और न नियम। तीन महत्वपूर्ण शब्द हैं- तप, दम और नियम। स्वाद विजय की और आसन विजय की साधना तपस्या है। विशेष साधक आसन विजय, निद्रा विजय और क्षुधा विजय करने वाले होते हैं। प्राणी को अपने जीवन और देह को चलाने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है। शरीर से काम लेना है तो शरीर को भोजन के रूप में भाड़ा देना होता है। संथारे में विदेह की साधना होती है। साधु आहार करते हुए भी स्वाद विजय का प्रयास करते हैं। स्वाद और विवाद में फालतू रस नहीं लेना चाहिए। नींद, भोजन और चलने में संतुलन होना चाहिए। विवेक महत्वपूर्ण है।
इन्द्रिय विजय की साधना दम है। कषायों को जीतना भी दम है। भोगोपभोग - वस्तुओं का एक समय तक त्याग कर देना नियम है। अनेक प्रकार के छोटे-छोटे त्याग नियम बन जाते हैं। जहां परिग्रह-आसक्ति होती है, वहां तप, दम और नियम का होना कठिन हो सकता है। लोभ साधना में अवरोध पैदा करता है। सामान्य परिग्रही व्यक्ति को तप, दया और नियम में प्रयास करना चाहिए। चतुर्मास में तप करने का अधिक प्रयास कर आत्मा को भावित करने का लक्ष्य रखना चाहिए। संयम और तप से हम आत्मा को भावित करते रहें। भगवान महावीर के साधना काल में संयम-तप विशेष था। आचार्य भिक्षु ने भी अत्यधिक सहन किया था। भगवान महावीर और आचार्य भिक्षु में कई बातों की समानताएं हैं।
मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री गजसुकुमाल मुनि के मोक्ष में जाने व उनके वियोग आदि प्रसंगों को आख्यान रूप में प्रदान किया। तदुपरान्त आचार्यश्री ने आख्यान के इस क्रम को सम्पन्न करने की घोषणा भी की। अनेकानेक तपस्वियों ने अपनी-अपनी तपस्या का प्रत्याख्यान किया। पूज्यवर की पावन सन्निधि में अखिल भारतीय तेरापंथ महिला मंडल के तत्वावधान में द्विदिवसीय 20वें राष्ट्रीय कन्या मंडल अधिवेशन का शुभारंभ हुआ। पूज्यवर ने अपने पावन आशीर्वचन में कहा कि अधिवेशन का नाम 'ज्योतिर्मय' रखा गया है। ज्योतिर्मय बनने के लिए हमें छः देवियों - श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी रूपी विशेषणों का विकास होता रहे। इन छह देवी रूपों कन्याएं अच्छा विकास करें। कन्याएं अच्छी श्राविकाएं बनें और अच्छे धार्मिक-आध्यात्मिक कार्य करती रहें और स्वयं के विकास का प्रयास करती रहें।
साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने कहा कि हमारी ये कन्याएं पूज्यवर से आशीर्वाद लेने के लिए उपस्थित हुई हैं। हर व्यक्ति आलोक चाहता है। हमें भीतरी प्रकाश को भी प्राप्त करना चाहिए। आचार्य श्री तुलसी, आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी और शासनमाता ने महिलाओं और कन्याओं के विकास के लिए बहुत कार्य किया है। ज्योतिर्मय बनने के लिए श्रद्धा को पुष्ट रखना होगा, ज्ञानार्जन करना होगा और संस्कार सम्पन्न बनना होगा। मंचीय कार्यक्रम में अभातेममं की अध्यक्ष सरिता डागा ने अपने भावों की प्रस्तुति दी। तेरापंथ कन्या मण्डल की प्रभारी श्रीमती अदिति सेखानी ने वार्षिक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। तेरापंथ कन्या मण्डल, सूरत ने अपनी प्रस्तुति दी। कन्याओं ने चौबीसी के गीत का संगान किया।