संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

समभाव की प्राप्ति का साधन जागरूकता है। जो व्यक्ति पल-पल जागरूक रहता है, वही समभाव की ओर बढ़ सकता है। पहले आठ व्रतों की सामान्य मर्यादा के अतिरिक्त थोड़े समय के लिए विशेष मर्यादा करना, अहिंसा आदि की विशेष साधना करना देशावकाशिक व्रत है।
३६. सावद्ययोगविरतिः, सोपवासा विधीयते।
द्रव्यक्षेत्रादिभेदेन, पौषधं तद् भवेद् व्रतम्॥
उपवासपूर्वक-१. द्रव्य-वस्तुओं की मर्यादा करना। २. क्षेत्र–क्षेत्र संबंधी मर्यादा करना। 3. काल-अहोरात्र। ४. भाव-राग-द्वेष रहित। इन चार प्रकार से सावद्य योग-असत् प्रवृत्ति की विरति करना पौषध व्रत कहलाता है।
इस साधना में पूर्ण उपवास व्रत से युक्त होकर व्यक्ति एक दिन के लिए साधुचर्या में आ जाता है। उसकी गति, अगति आदि शारीरिक क्रियाएं प्रमाद-रहित होती हैं। समभाव की साधना को पुष्ट करने के लिए ऐसे लम्बे समय की अपेक्षा रहती है, वह इसमें पूर्ण हो जाती है। यह साधु-जीवन का पूर्वाभ्यास है।
३७. प्रासुकं दोषमुक्तञ्च, भक्तपानं प्रदीयते ।
मुनये संविभज्याऽथ, संविभागोऽतिथेव्रतम् ।।
अपनी वस्तु का संविभाग कर, स्वयं कुछ कम खाकर साधु को प्रासुक-अचित्त और दोष-रहित जो भोजन दिया जाता है, उसे अतिथि-संविभाग व्रत कहा जाता है।
दान के विशुद्ध अधिकारी साधु ही हैं, जो केवल अहिंसा, आत्मसाधना और अध्यात्म-जागरण के लिए जीते हैं। वे केवल लेना ही नहीं जानते, दान का प्रतिदान भी करते हैं। किन्तु उनका प्रतिदान भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है। वे मनुष्यों की अंतश्चेतना को जागृत करते हैं, उन्हें नैतिक और धर्मनिष्ठ बनाते हैं।
साधुओं का भोजन विशुद्ध होता है। विशुद्ध का अभिप्राय है जो भोजन मुनि के लिए निर्मित न हो, सचित्त सजीव न हो, सचित्त वस्तुओं से स्पृष्ट न हो और जो मुनि के योग्य हो।
गृहस्थ श्रावक का यह धर्म है कि वह स्वनिर्मित भोजन में से मुनि को आहार दे। दान धर्म है। दान की विशुद्ध भावना से कर्म-निर्जरा होती है और उत्कट भाव-विशुद्धि से व्यक्ति संसार का अंत कर देता है। इस दान में कोई स्वार्थ नहीं रहता। यह आत्मशुद्धिमूलक होने से मोक्ष का एक अंग है। इसी को अतिथि संविभाग व्रत कहा है। श्रावकों के व्रतों के साथ इसका अभिन्न संबंध है। पांच अणुव्रतों की पुष्टि के लिए और आत्म पवित्रता के लिए इन अन्य व्रतों की रचना की गई है।
३८. संलेखनां प्रकुर्वीत, श्रावको मारणान्तिकीम् ।
मृत्युं सन्निहितं ज्ञात्वा, मृत्योरविचलाशयः ।।
मृत्यु से न डरने वाला श्रावक मृत्यु को सन्निहित- पास में जानकर मारणान्तिक संलेखना करे।
जीना जैसे एक कला है वैसे मरना भी। सहस्रों व्यक्तियों में से कोई एक व्यक्ति जीने की कला में अभिज्ञ होता है। मरने की कला जीने की कला से कोई कम नहीं है। जिसे जीने की कला आती है उसे मरने की कला भी सीखनी चाहिए। जैन दर्शन जीने और मरने दोनों की कलाएं सिखाता है। जीवन उसके लिए हर्ष नहीं है और मृत्यु विषाद नहीं है। जैन दर्शन साधक को यह संदेश देता है कि देह का भेद करो, मृत्यु से डरो मत लेकिन मौत को डरा दो। साधकों ने मृत्यु को महोत्सव माना है।