संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

आचार्य महाप्रज्ञ

आज्ञावाद

भगवान् प्राह
(7) आराधको जिनाज्ञाया:, संसारं तरति ध्रुवम्।
तस्या विराधको भूत्वा, भवाम्भोधौ निमज्जति

वीतराग की आज्ञा की आराधना करने वाला निश्‍चित रूप से भव-सागर को तर जाता है और उसकी विराधना करने वाला भव-सागर में डूब जाता है।

(8) आज्ञायां यश्‍च श्रद्धालु: मेधावी स इहोच्यते।
असंयमो जिनानाज्ञा, जिनाज्ञा संयमो ध्रुवम्॥

जो आज्ञा के प्रति श्रद्धावान् है, वह मेधावी है। असंयम की प्रवृत्ति में वीतराग की आज्ञा नहीं है। जहाँ संयम है वहीं वीतराग की आज्ञा है।

(9) संयमे जीवनं श्रेय:, संयमे मृत्युरुत्तम:।
जीवनं मरणं मुक्त्यै, नैव स्यातामसंयमे॥

संयममय जीवन और संयममय मृत्यु श्रेय है। असंयममय जीवन और असंयममय मरण मुक्‍ति के हेतु नहीं बनते।

संसारी प्राणी की दो अवस्थाएँ हैंजीवन और मरण। ये दोनों अपने आपमें अच्छे या बुरे नहीं होते। जब ये दोनों संयम से अनुप्राणित होते हैं तब श्रेयस्कर बनते हैं और जब असंयम से ओत-प्रोत होते हैं तब ये अश्रेयस्कर हो जाते हैं। संयमी व्यक्‍ति का जीना भी अच्छा है और मरना भी। असंयमी व्यक्‍ति का न जीना अच्छा है और न मरना। संयमी व्यक्‍ति यहाँ जीता हुआ सत्क्रिया में प्रवृत्त रहता है, शांति और आनंद का अनुभव करता है और जब वह मरता है तो उसकी अच्छी गति होती है। असंयमी व्यक्‍ति का जीवन न यहाँ अच्छा होता है और न उसका परलोक ही सुधरता है। जिसका वर्तमान पवित्र नहीं है, उसका भविष्य पवित्र नहीं हो सकता। जिसका वर्तमान पवित्र है, उसका भविष्य निश्‍चित रूप से सुंदर होगा। जैन दर्शन में कामनाओं का निषेध किया गया है। किंतु मुमुक्षु के लिए संयममय जीवन और संयममय मृत्यु की कामना का विधान मिलता है। श्रावक के तीन मनोरथों में एक यह भी हैकब मैं समाधिपूर्ण मरण को प्राप्त करूँगा। जीवन की यह अंतिम परिणति यदि समाधिमय होती है तो उसका फल श्रेयस्कर होता है।
एक बार भगवान् महावीर समवसरण में बैठे थे। वहाँ राजा श्रेणिक, अमात्य अभयकुमार और कसाई कालसौकरिक भी उपस्थित थे। एक ब्राह्मण वहाँ आया। उसने भगवान् महावीर से कहामरो। राजा श्रेणिक से कहामत मरो। अमात्य अभयकुमार से कहाभले मरो, भले जीओ। कालसौकरिक से कहामत मरो, मत जीओ। ब्राह्मण यह कहकर चला गया। राजा श्रेणिक का मन इन वाक्यों से आंदोलित हो उठा। उसने भगवान् से पूछा। भगवान् ने कहाराजन्! वह ब्राह्मण के वेश में देव था। उसने जो कहा वह सत्य है। उसने मुझे कहामर जाओ। इसका तात्पर्य है कि मरते ही मुझे मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। उसने तुझे कहामत मरो। यह इसलिए कि तुझे मरने के बाद नरक मिलेगा। अमात्य से कहाभले मरो, भले जीओ। क्योंकि वह मरने पर स्वर्ग प्राप्त करेगा जहाँ सुख ही सुख है और यहाँ भी उसे सुख ही है। कालसौकरिक से कहामत मरो, मत जीओ। क्योंकि उसका वर्तमान जीवन भी पापमय प्रवृत्तियों से आक्रांत है और मरने पर भी उसे नरक ही मिलेगा।
(क्रमश:)