भोग पर नियंत्रण और योग का चिंतन करें : आचार्यश्री महाश्रमण
जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अमृत देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि आयारो आगम में कहा गया है- आदमी जान लेता है कि जीवन में रोग उत्पन्न हो जाते हैं। काम-भोगों से रोगों की उत्पति हो सकती है। आसक्ति से भी रोग हो सकता है। इन बातों का बोध हो जाने पर कुछ व्यक्ति धर्म के मार्ग पर आगे बढ़ जाते हैं, तो कई भोगों में लिप्त रहते हैं, धर्म के मार्ग पर कदम नहीं रख पाते।
एक है योग, एक है भोग और एक है रोग। योग धर्म की साधना है। इससे आत्मा के रोग व शारीरिक रोग दूर हो जाते हैं। हमारा योग में कितना समय लगता है और पदार्थों के भोग में कितना समय लगता है? जीवन को चलाने में पदार्थों की अपेक्षा भी होती है। आदमी को यह विचार करना चाहिए कि आदमी को अपने जीवन में किसी पदार्थ की आवश्यकता कितनी है और अपेक्षा और लालसा कितनी है। भूख लगे तो भोजन, प्यास लगे तो पानी, शरीर के लिए कपड़ा, आश्रय के लिए मकान की आवश्यकता होती है। पढ़ने-लिखने के लिए संबंधित पदार्थ चाहिए। सोने के लिए कुर्सी और पलंग की आवश्यकता होती है। ये सारी चीजें तो आवश्यक हैं, किन्तु इन संदर्भों में इच्छा कितनी है, इसे ध्यान में रखने का प्रयास करना चाहिए। आदमी साधारण कपड़े से भी शरीर को ढंक सकता है, कोई महंगे कपड़े पहनने की कोई आवश्यकता नहीं होती। जीवन के लिए किसी चीज की आवश्यकता तो हो सकती है और उसे पूरा करने का प्रयास भी किया जा सकता है, किन्तु लालसा के वशीभूत होकर उसीमें रम जाना अच्छा नहीं होता।
मनुष्य जीवन सीमित है। इसमें यह चिंतन रहे कि मेरा जीवन बीत रहा है, मैं धर्म-मोक्ष की साधना के लिए कुछ कर रहा हूं या नहीं? उम्र बीतने पर वृद्धावस्था, रोग उत्पत्ति हो सकती है। धर्म की साधना काल प्रतिबद्ध और कालातीत बद्ध साधना होती है। युवावस्था में किया जाने वाला धर्म काल प्रतिबद्ध होता है। कालातीत धर्म वृद्धावस्था में किया जाने वाला धर्म होता है। जीवन में ईमानदारी, क्षमा, अक्रोध का भाव रहे। कुछ लोग भोगों के विषय में सोचते रहते हैं। दृष्टिकोण यह रहे कि मैं आत्मा के बारे में भी सोचूं। आत्मा शाश्वत है, आगे जाने वाली है। धन-संपत्ति, शरीर अशाश्वत है, आत्मा निर्मल बने, ऐसा चिन्तन रहे। आवश्यकता व लालच का विवेक करें। पदार्थों के प्रति आसक्ति न रहे, आवश्यकता अलग है। गृहस्थों के जीवन में धर्म रहे, बारह व्रतों को अपनाएं, छोटे-छोटे त्याग करें, भोगों पर नियंत्रण करें और योगों के बारे में चिंतन करें।
आगमों की वाणी कल्याणी वाणी है, प्रेक्षाध्यान आदि भी हैं। ये हमारे आत्मा के हितावह हो सकते हैं। साहित्य के स्वाध्याय से अच्छे प्रेरणा मिल सकती है। पहले आदमी भोग भोगता है फिर भोग आदमी को भोगने लग जाता है। भोगों को क्या भोगा, हम भोग लिए गये। आदमी बुढ़ा हो गया पर तृष्णा नहीं गई। हम योगी बनें, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र योग की साधना है। मोक्ष से जोड़ने वाली धर्म की प्रवृत्ति अपने आप में योग है। मंगल प्रवचन के उपरान्त होसपेट के अशोक जैन ने अपनी अभिव्यक्ति दी। सायर बोथरा ने अपनी भावाभिव्यक्ति देते हुए पूज्यप्रवर के समक्ष ‘चैतन्य केन्द्र एवं अन्य योग चक्रों का तुलनात्मक अध्ययन’ शोध ग्रन्थ को आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित किया।
आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में जैन विश्व भारती द्वारा संघ सेवा पुरस्कार समारोह का आयोजन किया गया। नेमचंद जेसराज सेखानी चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा पानादेवी सेखानी संघ सेवा पुरस्कार-वर्ष 2024 बुधमल दुगड़ (कोलकाता) को प्रदान किया गया। इस संदर्भ में सरिता सेखानी ने अपनी अभिव्यक्ति दी। सम्मान पत्र का वाचन जैन विश्व भारती के मंत्री सलिल लोढ़ा ने किया। मधु दुगड़, सुरेन्द्र दुगड़ ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। विकास परिषद के सदस्य बनेचंद मालू ने भी अपनी अभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने इस संदर्भ में आशीर्वचन फरमाया कि मनुष्य जन्म दुर्लभ है। इसमें संयम-त्याग की साधना करना महत्वपूर्ण है। बुधमलजी दुगड़ को यह पुरस्कार दिया गया है। वृद्ध अवस्था में परिणाम धारा अच्छी बनी रहे। जेसराजजी सेखानी भी 101वें वर्ष में हैं, दोनों अपनी साधना आगे बढ़ाते रहें। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।