कालूगणी के जीवन से पाएं प्रेरणा : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कालूगणी के जीवन से पाएं प्रेरणा : आचार्यश्री महाश्रमण

भाद्रव शुक्ला पूर्णिमा, अष्टमाचार्य पूज्य कालूगणी का पट्टोत्सव का दिन। पूज्य कालूगणी के परम्पर पट्टधर आचार्य श्रीमहाश्रमणजी ने पूज्य कालूगणी के प्रति श्रद्धा समर्पित कराते हुए फरमाया कि हमारे धर्मसंघ में भाद्रव महीने में अनेक दिवस ऐसे आते हैं, जो महत्ता के दिन होते हैं। भाद्रव कृष्णा द्वादशी पूज्य जयाचार्य का महाप्रयाण दिवस है। पर्वाधिराज पर्युषण पर्व, भगवती संवत्सरी एवं क्षमापना दिवस भी भाद्रव माह से जुड़े हुए हैं। हमारी परम्परा में भले श्रावण दो हो पर पर्युषण पर्व तो भाद्रव महीने में ही मनाया जाता है। भाद्रव शुक्ला तृतीया के दिन पूज्य कालूगणी का महाप्रयाण भी हो गया था।
भाद्रव शुक्ला नवमी को आचार्य तुलसी विधिवत पाट पर विराजे थे, जिसे हम वर्तमान में विकास महोत्सव के रूप में मनाते हैं। भाद्रव शुक्ला द्वादशी का दिन तीन प्रसंगों से जुड़ा है- इस दिन आचार्य भिक्षु ने अनशन स्वीकार किया था, लाडनूं में सप्तमाचार्य पूज्य डालगणी का महाप्रयाण हुआ था, आज ही के दिन पूज्य आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने मुझे युवाचार्य पद पर प्रतिष्ठापित किया था। भाद्रव शुक्ला पूर्णिमा को पूज्य अष्टमाचार्य कालूगणी को विधिवत आचार्य पद पर प्रतिष्ठापित किया गया था। पूज्य कालूगणी का 27 वर्षों का आचार्य काल रहा था। आपने सिर्फ एक चतुर्मास भिवानी में किया था, शेष सारे चतुर्मास राजस्थान में ही किये थे। मर्यादा महोत्सवों में भी एक मर्यादा महोत्सव मालवा में किया था, शेष सभी मर्यादा महोत्सव राजस्थान में ही किये थे। राजस्थान का सौभाग्य रहा कि वहां पूज्य कालूगणी का लम्बा प्रवास हुआ।
पूज्य कालूगणी का जन्म विक्रम संवत् 1933 फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को छापर में हुआ था। गुरूदेव तुलसी ने विक्रम संवत् 2033 कालू जन्म शताब्दी छापर में आयोजन करवाया था। उस समय छापर में अच्छी संख्या में साधु-साध्वियां उपस्थित थे, कालूगणी के करकमलों से दीक्षित कई साधु-साध्वियां भी थे। काल बीतता है, इतिहास हो जाता है तो नया इतिहास बनता जाता है। हम लोगों ने गुरूदेव तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञजी आदि के अनेक संतो-साध्वियों को देखा है। कालूगणी द्वारा दीक्षित दो सुशिष्य हमें आचार्य रूप में मिले। कालूगणी के समय हमारे धर्मसंघ में संस्कृत भाषा का विकास हुआ था। हम कालूगणी का स्मरण करें, उनके जीवन से हमें प्रेरणाएं मिलती रहे।
साध्वीवर्याजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि रोहिणेय के पैर में बाह्य कांटा भी चुभा तो आभ्यंतर कांटा भी चुभा था। भीतर का कांटा जन्म-जन्मांतर तक पीड़ा देता है। मिथ्यादर्शन शल्य आत्म पतन का कारण बनता है। सम्यक्त्व से आत्म कल्याण होता है। मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से होता है। मिथ्यात्व के तीन कारण होते हैं- तत्व के प्रति श्रद्धा नहीं होना, देव-गुरू-धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होना एवं आग्रह। तेरापंथ किशोर मंडल, कन्यामंडल ने चौबीसी के गीत का संगान किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।