आत्मा के उर्ध्वारोहण के लिए करें तप-संयम की साधना : आचार्य श्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

आत्मा के उर्ध्वारोहण के लिए करें तप-संयम की साधना : आचार्य श्री महाश्रमण

तेरापंथ के देदीप्यमान महासूर्य आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन मंगल पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि अंग आगमों में पहला आगम आयारो है। इसमें छोटे-छोटे श्लोकों में निर्देश दिये गये हैं जिनसे मनुष्य के अप्रमाद, आत्मलीन, अध्यात्मलीन बनने का पथ प्रशस्त हो सकता है। इस हेतु तीन उपाय बतायें गये हैं- शान्ति संप्रेक्षा, मरण संप्रेक्षा और अनित्य संप्रेक्षा। शान्ति का अर्थ है निर्वाण - मोक्ष। मोक्ष के बारे में संप्रेक्षा-चिन्तन किया जाता है, आत्मा जन्म-मरण, जन्म-मरण करती है, उस जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा मिले। शांति संप्रेक्षा से अप्रमाद की स्थिति का विकास हो सकता है। दूसरी संप्रेक्षा- मरण संप्रेक्षा। संसार में मृत्यु होती है। मरण यानि संसार। संसार में जन्म-मरण बार-बार का यह क्रम चलता है। विभिन्न योनियों में जीव जाते हैं, कहीं कष्ट पाते हैं, कहीं सुख भी पाते हैं। संसार के बारे में भी संप्रेक्षा करने से अप्रमाद का विकास होता है।
तीसरी अनुप्रेक्षा है- अनित्यता। यह शरीर अनित्य है। हम शरीर के बारे में चिन्तन करते हैं तो हमारा मोह भाव कम हो सकता है। अनन्त काल से हमारे भीतर मोह का प्रभाव है। मोह कई बार इतना सघन हो जाता है कि उसको भेदना-तोड़ना, खत्म करना कठिन काम हो सकता है। मोह का आवरण होने से अज्ञान रहता है। संयोग होता है, उसका वियोग भी होता है। एक आत्मा शाश्वत है, जो ज्ञान-दर्शन युुक्त है। आदमी सोचे- मैं इस दुनिया में स्थायी बनकर नहीं आया हूं। राही हूं, आया हूं तो कभी यहां से विदाई भी लेनी है। आत्मा अमर है, पर शरीर मृत्यु सहित है। उम्र का कोई भरोसा नहीं है, मृत्यु कभी भी प्राप्त हो सकती है। शरीर का परिवर्तन हो जाता है, पर आत्मा कभी नहीं मरती है। जब तक मोक्ष नहीं होता नया-नया शरीर मिलता रहता है। दुनिया में स्थितियां भी अनित्य है। जिसको मित्र मान रखा था वह कभी दुश्मन भी बन सकता है। अपने पराये हो जाते हैं, सम्बन्ध का धागा कई बार टूट जाता है।
आत्मा नीची गति में न जाये, आत्मा का उर्ध्वारोहण हो, इस लिए तप-संयम की साधना करें। त्याग-तपस्या का बल है तो आशा करेें आत्मा दुर्गति में नहीं जायेगी। जैन दर्शन में महाव्रत और अणुव्रत की बात आती है। साधु के लिए पांच महाव्रत तो गृहस्थों के लिए मध्यम मार्ग अणुव्रत है। अव्रत के साथ व्रत भी है। श्रावकों के लिए बारह व्रतों की बात आती है। श्रावक बारह व्रतों का पालन करे। बारह व्रतों की क्लास के बाद है- सुमंगल साधना की क्लास। उसमें और संयम करना होता है। हमारे यहां सघन साधना शिविर का क्रम भी शुरू हुआ है जिससे मुमुक्षा की ओर आगे बढ़ सकते हैं। इनसे त्याग-संयम की साधना का विकास होता है। व्रतों के पालन में भी जागरूकता रहे। आसक्ति छूटेगी, अनासक्ति बढ़ेगी तो चेतना निर्मल होगी और आगे सुगति भी प्राप्त हो सकेगी। आत्मा के साथ धर्म का टिफिन है तो आगे भी सुविधा रहेगी। छोटे-छोटे नियमों के पालन के प्रति निष्ठा होनी चाहिये। पूज्य प्रवर ने बारह व्रतों को ग्रहण करने की प्रेरणा प्रदान की।
आचार्य प्रवर ने आगे फरमाया- आज दिनेशजी पधारे हैं। पहले भी मिलना हुआ था और आज सूरत में मिलना भी हो गया। आचार्य प्रवर ने उन्हें जीवन में त्याग-संयम, योग साधना के विकास का आशीष प्रदान किया। अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद के स्थापना दिवस के संदर्भ में आचार्य प्रवर ने फरमाया कि आज अभातेयुप का स्थापना दिवस है, साठ वर्ष पूरे हो रहे हैं। अभातेयुप एवं शाखा परिषदें खूब धार्मिक-आध्यात्मिक विकास करती रहें। राजेश सुराणा ने विश्व हिन्दू परिषद के दिनेश चंद्र का परिचय दिया। उन्होंने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी। चतुर्दशी के संदर्भ में हाजरी वाचन किया गया। पूज्यवर ने मर्यादाओं को समझाते हुए प्रेरणा प्रदान करवायी तथा सूरत से विहार के बाद के यात्रा पथ की जानकारी दी।
द्विदिवसीय बारह व्रत दीक्षा सम्मेलन के संदर्भ में अभातेयुप के आध्यात्मिक पर्यवेक्षक मुनि योगेशकुमारजी ने अपने उद्गार व्यक्त किए।अभातेयुप अध्यक्ष रमेश डागा एवं बारह व्रत प्रभारी रोहित दूगड़ ने अपने विचार व्यक्त किये। पूज्यवर ने बारह व्रत स्वीकार करने वालों को प्रत्याख्यान करवाये। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।