संयम से आत्मा को भावित करने का पर्व है पर्युषण
खाद्य संयम दिवस- श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथी सभा गंगाशहर के तत्वावधान में तेरापंथ भवन में साध्वी चरितार्थप्रभाजी एवं साध्वी प्रांजल प्रभा जी के सान्निध्य में पर्युषण महापर्व का प्रथम दिवस खाद्य संयम दिवस के रूप में मनाया गया। इस अवसर पर साध्वी चरितार्थप्रभा जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि एक जैसा जीवन व्यक्ति को पसंद नहीं होता है, नवीनता, उत्साह व उमंग लाने के लिए समय-समय पर पर्व मनाए जाते हैं। पर्युषण महापर्व बाहर की दुनिया से भीतर की दुनिया में प्रवेश करने का महापर्व है। आसक्ति से अनासक्ति, वासना से उपासना, राग से विराग की ओर प्रस्थान ही पर्युषण है। साध्वी प्रांजलप्रभाजी ने कहा कि पर्युषण महापर्व पर्वों में अनुत्तर है, सर्वोत्तम है। इस पर्व में धर्म का पोषण होता है। यह आत्म शुद्धि का प्रेरक पर्व है, अतः इस महापर्व कहते हैं। उन्होंने तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के बारे में बताते हुए उवसग्गहर स्तोत्र की महत्ता बताई। साध्वी वैभवयशाजी ने खाद्य संयम के बारे में बताते हुए कहा कि साधना का पहला पैरामीटर है- खाद्य संयम। निर्जरा का पहला प्रकार है- अनशन, जिसके अंतर्गत एक दिन से 6 माह तक का उपवास आता है। उन्होंने बताया कि 15 दिन में एक उपवास करना स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है।
स्वाध्याय दिवस- साध्वी चरितार्थ प्रभा जी ने भगवान महावीर के मरीचि कुमार के भव का वर्णन किया। उन्होंने कहा कि जैन धर्म ईश्वर को आठ कर्मों की मुक्त अवस्था के रूप में मानता है। जीवन में चाहे जितनी सुख सुविधा मिल जाए, अगर सम्यक्त्व नहीं आया, तो सब व्यर्थ है। शुद्ध दान, शुद्ध भावना और पवित्रता से सम्यक्त्व आता है। साध्वी प्रांजलप्रभा जी ने बताया कि जिस प्रकार पारसमणि लोहे को भी सोना बना देती है, वैसे ही भक्त यदि पूरी श्रद्धा व एकाग्रता से पार्श्व स्तुति करता है तो निश्चित ही आत्मा की शुद्धि होती है।
वाणी संयम दिवस- साध्वी चरितार्थप्रभा जी ने कहा कि जैन धर्म में राग-द्वेष को क्षय करना महत्वपूर्ण माना गया है। वाणी संयम दिवस के अवसर पर सभी को गुस्सा नहीं करने का संकल्प करवाया। साध्वी प्रांजलप्रभा जी ने आचार्य भद्रबाहु द्वारा रचित उपसर्गहर स्तोत्र का विवेचन किया। साध्वी कृतार्थप्रभा जी ने वाणी के महत्व को उजागर किया।
अणुव्रत चेतना दिवस- साध्वी चरितार्थप्रभा जी ने तीर्थंकरों के गुणों का वर्णन करते हुए कहा कि तीर्थंकर भगवान में अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र ,आनंद समाया हुआ है। हमें प्रतिदिन जप स्वाध्याय करना चाहिए जिससे हमारा आभामंडल इतना शुभ हो जाए की कोई विघ्न, बाधा हमारे निकट ही नहीं आ सके। साध्वी प्रांजलप्रभा जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि भक्ति भावों पर निर्भर करती है। जैसा भाव, वैसा स्वभाव। हाथों के साथ हृदय जुड़ जाए तो भावना के साथ भक्ति से स्पंदन बढ़ जाता है और भक्ति शक्तिशाली हो जाती है। अगर जप में निरंतरता होती है तो वह सिद्धि बन जाता है और भौतिक संपन्नता बढ़ती है। साध्वी मध्यस्थप्रभा जी ने कहा कि मनुष्य बाह्य विकास को देखकर आंतरिक विकास को भूल जाते हैं। जबकि मनुष्य को आंतरिक विकास पर ध्यान देना चाहिए। अणुव्रत दिवस के अवसर पर छोटे-छोटे संकल्प करें, जिनसे जीवन को नया मोड़ दे सकें। जप दिवस- साध्वी चरितार्थप्रभा जी ने कहा कि लोक में प्रकाश जब-जब होता है, जब तीर्थंकरों का जन्म महोत्सव, दीक्षा कल्याणक, कैवल्य ज्ञान का महोत्सव, निर्वाण को प्राप्त करते हो। साध्वी श्री ने कहा कि थोड़ी उम्र मिले और वह सुख-शांति से बीते तो सबसे अच्छा, लेकिन अधिक उम्र मिले और दुर्भाग्य साथ रहे, कष्ट रहे, बीमारियां रहे, तो अधिक उम्र मिलना भी कष्टकारी है। साध्वी प्रांजलप्रभा जी ने कहा कि गौतम स्वामी ने प्रभु महावीर से पूछा की वंदना करने से क्या होता है? भगवान महावीर ने कहा कि वंदना करने से नीच गोत्र का बंधन नहीं होता है और उच्च गोत्र का बंधन होता है, आठ कर्मों का क्षय हो सकता है। साध्वी रुचिप्रभाजी ने गीतिका प्रस्तुत की एवं शोभ जी श्रावक की घटना का वर्णन करते हुए जप करने की प्रेरणा दी।
ध्यान दिवस- साध्वी चरितार्थप्रभा जी ने कहा कि दुनिया में कुछ लोग जागते हुए भी सोते हैं और कुछ लोग सोते हुए भी जागते हैं। साध्वी श्री ने भगवान महावीर की दीक्षा प्रसंग को व्याख्यायित करते हुए कहा कि भगवान ने अभय की साधना का संकल्प लिया था। साध्वी प्रांजलप्रभाजी ने कहा कि 84 लाख जीव योनि में भटकाव करके मनुष्य भव मिला है, इसमें प्रमाद न कर आत्मा का कल्याण करें। क्षण भर भी सम्यक्त्व का स्पर्श हो जाए तो मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। सम्यक्त्व के अभाव में किया गया तप, त्याग, ध्यान आदि अकाम निर्जरा होगी। हमें कर्म रूपी मोती को सम्यक्त्व रूपी हंस के मुख में रखना आ गया तो मोक्ष का मार्ग निश्चित है। साध्वी आगमप्रभा जी ने कहा कि ध्यान का अर्थ अपने भीतर जाना, अपने अन्दर देखना होता है।
भगवती संवत्सरी महापर्व - श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथी सभा के तत्वाधान में तेरापंथ भवन में मुनि श्रेयांसकुमार जी, साध्वी चरितार्थप्रभा जी एवं साध्वी प्रांजलप्रभा जी के सान्निध्य में भगवती संवत्सरी महापर्व मनाया गया। इस अवसर पर मुनि श्रेंयासकुमार जी ने कहा कि पर्युषण महापर्व आत्मशोधन का पर्व है। आज के दिन जिस-जिस से भी वैर-विरोध हुआ हो और उनसे खमत खामणा न हो तो श्रावक का श्रावकत्व चला जाता है। प्रत्येक व्यक्ति से, प्राणी मात्र से, शुद्ध ह्दय से क्षमायाचना कर अपनी आत्मा को पवित्र बनाना चाहिए।
साध्वी चरितार्थप्रभा जी ने कहा कि संवत्सरी का पर्व हमारे लिए महत्वपूर्ण पर्व है। संवत्सर का अर्थ है वर्ष, अर्थात् साल में एक बार आने वाला दिन। आचार्यों ने कहा कि यह सभी प्राणियों के कल्याण का दिवस है, इसलिए आचार्यों ने इसे श्रावक-श्राविकाओं के लिए त्याग, तप, ध्यान, स्वाध्याय आदि अनुष्ठान से जोड़ा। तप चार प्रकार के होते हैं- शरीर का कायिक तप, वाचिक तप, मानसिक तप, भावनात्मक तप। आज के दिन हमें संकल्प करना है कि हम आत्मा की उन कमियों और बुराइयों को दूर करें जो हमारे मोक्ष मार्ग की बाधाएं हैं। साध्वी प्रांजलप्रभा जी ने कहा कि लोग उपकार को भूल जाते हैं पर एक बात होने पर गांठ पड़ जाती है। आज के दिन हमें भूलना है और सभी गांठो को तोड़ देना है। जिस तरह खमतखामणा जरूरी है, उसी तरह प्रायश्चित करना जरूरी है। प्रतिक्रमण किया और प्रायश्चित का भाव नहीं रखा तो उसका फल प्राप्त नहीं होगा। हमारी गति विराधक हो जाती है। कार्यक्रम में मुनि विमलविहारी जी, मुनि प्रबोध कुमारजी, साध्वी कृतार्थप्रभा जी, साध्वी वैभवयशा जी, साध्वी आगमप्रभा जी, साध्वी आर्यप्रभा जी एवं साध्वी मध्यस्थप्रभा जी ने विभिन्न विषयों पर अपने विचार व्यक्त किए।