धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

भोजन-पानी शरीर को बनाए रखने के लिए उपयोगी है। मुनि के लिए भोजन-पानी ग्रहण करना भी एक साधना है और उसका परिहार करना भी एक विशेष साधना है।
भाव-व्युत्सर्ग के तीन प्रकार बतलाए गए हैं-कषाय-व्युत्सर्ग, संसार-व्युत्सर्ग, कर्म-व्युत्सर्ग। कषाय व्युत्सर्ग के चार प्रकार हैं-कोध कषाय-व्युत्सर्ग, मान कषाय-व्युत्सर्ग, माया कषाय-व्युत्सर्ग और लोभ कषाय-व्युत्सर्ग।
कषाय की मुक्ति मोक्ष के लिए अनिवार्य है। उसका आसेवन साधना को किसी भी भूमिका में उपादेय हो सकता है क्या? क्षमा के द्वारा क्रोध का, मृदुता के द्वारा मान का, ऋजुता के द्वारा माया का और संतोष के द्वारा लोभ का विसर्जन कषाय-व्युत्सर्ग की साधना है।
कषाय (क्रोध आदि) और नोकषाय (वेद मोहनीय आदि) का कृशीकरण ही मुख्यतः साधना है।
संसार-व्युत्सर्ग के चार प्रकार हैं- नैरयिक-संसार-व्युत्सर्ग, तिर्यञ्च-संसार-व्युत्सर्ग, मनुष्य-संसार-व्युत्सर्ग, देव-संसार-व्युत्सर्ग।
साधक का लक्ष्य होता है आत्मा का साक्षात्कार और मोक्ष की प्राप्ति। उसके लिए संसार को छोड़ना होता है। कर्म-निर्जरा को ऋमिक प्रकृष्टता में संसार व्युत्सृष्ट होता जाता है। सबसे अन्त में मनुष्य-संसार व्युत्सृष्ट होता है। कर्म-व्युत्सर्ग के आठ प्रकार हैं ज्ञानावरणीय कर्म-व्युत्सर्ग, दर्शनावरणीय कर्म-व्युत्सर्ग, वेदनीय कर्म-व्युत्सर्ग, मोहनीय कर्म-व्युत्सर्ग, आयुष्य कर्म-व्युत्सर्ग, नामकर्म-व्युत्सर्ग, गोत्रकर्म-व्युत्सर्ग, अन्तराय कर्म-व्युत्सर्ग।
बारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म सर्वथा-व्युत्सृष्ट हो जाता है। तेरहवें गुणस्थान में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म क्षीण हो जाते हैं। शेष चार अघात्य कर्म सिद्धावस्था के प्रथम समय में क्षीण होते हैं।
अहिंसा समयं चेव
एकादशांगी का दूसरा अंग है सूत्रकृतांग (सूयगडो)। उसमें एक श्लोक प्राप्त होता है-
एयं खु णाणिणो सारं, जं ण हिंसति कंचणं।
अहिंसा समयं चेव, एतावंतं विजाणिया।।
ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता। समता अहिंसा है-इतना ही उसे जानना है।
'प्रश्न व्याकरण' सूत्र में अहिंसा को 'भगवती' विशेषण से अलंकृत कर कहा गया है-एसा सा भगवती अहिंसा, जा सा-
भीयाणं पिव सरणं, पक्खीणं पिव गयणं।
तिसियाणं पिव सलिलं, खुहियाणं पिव असणं।।
समुद्दमज्झे व पोतवहणं, चउप्पयाणं व आसमपयं।
दुहट्टिवयाण व ओसहिबलं, अडवीमज्झे व सत्यगमणं।।
यह वह भगवती अहिंसा है। वह प्राणियों के लिए वैसे ही आधारभूत है जैसे डरे हुए मनुष्यों के लिए शरण, पक्षियों के लिए गगन, प्यासों के लिए जल, भूखों के लिए भोजन, समुद्र में डूबते हुए मनुष्यों के लिए नौका, चतुष्पदों के लिए आश्रम, रोगियों के लिए औषध और जंगल को पार करने के लिए सार्थगमन (संघबद्ध यात्रा)।
अहिंसा धार्मिक जगत् का प्रमुख व बहुचर्चित शब्द है। इस एक शब्द की व्याख्या बहुत विस्तृत प्राप्त होती है। अहिंसा को समझने के लिए हिंसा को समझना भी अपेक्षित है। हिंसा के लिए आगम-साहित्य में 'पाणाइवाय' (प्राणातिपात) शब्द का प्रयोग मिलता है। अठारह क्रियाओं अथवा पापों में उसका प्रथम स्थान है। जीव का प्राणवियोजन करना हिंसा अथवा प्राणातिपात है। हिंसा संसार में सदा थी, है और सदा रहेगी यह एक शाश्वत तथ्य है। सर्वथा हिंसामुक्त
स्थिति संसार में कभी हो नहीं सकती। संसार की बात तो दूर, शरीरधारी प्रवृत्तिमान् मनुष्य के लिए भी सम्पूर्णतया हिंसाविरत हो जाना प्रायः असम्भव है। अहिंसा महाव्रतधारी षष्ठगुणस्थानवर्ती साधु के लिए भी दीर्घकाल तक सर्वथा हिंसा से बचना दुःसम्भव अथवा प्रायः असम्भव है। उसके द्वारा भी किसी न किसी रूप में हिंसा दृष्टिगोचर बनती है। यह एक तथ्य है। नदीविहार, नौकाविहार, हरियाली आदि पर विसर्जन क्रिया, वर्षा के दौरान शौचार्थ गमन, विसर्जित मल आदि में जीवोत्पत्ति, पेट में कृमि आदि की उत्पत्ति- ऐसे प्रसंग हैं जिनमें प्राणातिपात (द्रव्य हिंसा) को अस्वीकार कैसे किया जा सकता है?