धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

सामान्य साधु की ही बात नहीं, केवलज्ञानी मुनि के द्वारा भी जीवहिंसा हो सकती है। विशेष बात यही कि उस हिंसा से केवली के पापकर्म का बन्ध नहीं होता, अपितु उस समय पुण्यबन्ध सम्मत है। हालांकि पुण्यबन्ध का कारण वह हिंसा नहीं है, शुभयोग उसका हेतु बनता है। और अधिक विश्लेषण करें तो शुभयोग आश्रव पुण्यबन्ध का हेतु बनता है, यह तथ्य सामने आता है। एक ही शुभयोग के दो रूप और दो कार्य हैं शुभयोग आश्रव और शुभयोग निर्जरा। पुण्यबन्ध का कारण शुभयोग का आश्रव-रूप है और आत्म-उज्ज्वलता का कारण शुभयोग का निर्जरात्मक रूप है। शुभयोग के निर्जरात्मक स्वरूप का विशेष कारण मोहकर्म का विलय है और उसके आश्रवात्मक रूप का विशेष कारण नाम कर्म का उदय है।
प्राणव्यपरोपणात्मक (द्रव्य) हिंसा तो केवली के निमित्त से भी संभाव्य है, परन्तु राग द्वेषात्मक भाव हिंसा केवली अथवा वीतराग से कभी नहीं हो सकती। जब तक मन में रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति रहती है, वीतरागता तो दूर, अप्रमाद की भूमिका भी प्राप्त नहीं हो सकती। इस चर्चा का निष्कर्ष यह है कि धर्म की सर्वथा अटूट कसौटी समता/रागद्वेषमुक्तता है। उसके बिना न वीतरागता प्राप्त हो सकती है, न केवलिता और न अप्रमत्तता। अप्रमत्त अवस्था के लिए भी मन का रागद्वेषमुक्त होना अनिवार्य है।
अहिंसा धर्म की सापेक्ष कसौटी है, निरपेक्ष नहीं। हिंसा (प्राणातिपात) के न होने पर भी पापबन्धन हो जाता है और कभी उसके होने पर भी उन क्षणों में पापबन्धन नहीं होता। प्रमादी/अजागरूक मुनि चल रहा है। उसके पैर से कोई जीव नहीं मरा, फिर भी उसके पाप का बन्धन हो जाता है।
समता धर्म की निरपेक्ष कसौटी है। जहां भी विषमता/राग-द्वेष है, वह अधर्म है। जहां भी समता है, रागद्वेष मुक्ति है, वह धर्म है। यह समता विशुद्ध अहिंसा है, विशुद्ध धर्म है। सब प्राणियों के प्रति मैत्री-भाव, सबके कल्याण की भावना, सहज दया (किसी को मेरी ओर से कष्ट न हो, वैसा प्रयास व भाव)- मन व आत्मा को पवित्र बनाने वाला चिन्तन अहिंसा का विधायक पक्ष है।
केवल प्राणवध ही हिंसा की सीमा नहीं है। उसका परिवार बड़ा है। किसी को मारने का संकल्प/चिन्तन करना भी हिंसा का ही एक प्रकार है। एक पुरुष मृग को मारने के लिए बाण चलाने की मुद्रा में है। इस स्थिति में कोई दूसरा मनुष्य आकर उस पुरुष का तलवार से शिरश्छेद कर डालता है। उस प्रियमाण पुरुष के हाथ से बाण छूटता है और सम्मुखीन मृग मर जाता है।
यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि उस मृग का हन्ता किसे माना जाए? धनुर्धर व्यक्ति को अथवा धनुर्धर को मारने वाले दूसरे व्यक्ति को?
धनुर्धर को मारने वाले व्यक्ति के मन में मृग को मारने का संकल्प नहीं था, इसलिए वह मृगवैर के पाप से स्पृष्ट नहीं होता। धनुर्धर व्यक्ति के मन में मृग को मारने का संकल्प था। उसने प्रत्यञ्चा पर बाण को मृगवध के उद्देश्य से चढ़ाया था। वह मृगवध की प्रक्रिया में प्रवृत्त भी हो चुका था। इसलिए मृगवैर के पाप से धनुर्धर व्यक्ति स्पृष्ट होता है, न कि धनुर्धर को मारने वाला व्यक्ति। इस अर्थ में मृग का मुख्य हन्ता भी धनुर्धर ही है।
कर्मबन्ध में भाव (चित्तवृत्ति) ही प्रधान हेतु बनता है। स्थूल क्रिया गौण है, भाव प्रधान है। क्रिया एक ही प्रकार की होती है, किन्तु भाव की भिन्नता के कारण बन्धन भिन्न-भिन्न होता है। कषाय की तीव्रता और मन्दता कर्मफल की तीव्रता और मन्दता का कारण बनता है। कहा भी गया है-
यादृशी चित्तवृत्तिः स्यात्, तादृक् कर्मफलं नृणाम्।
परलोके गतिस्ताट्टक, प्रतीतिः फलदायिका।।
जैसी चित्तवृत्ति होती है, वैसा ही कर्म का फल मिलता है और वैसी ही परलोक में गति होती है। भावना ही प्रमुखतया फलदायी होती है। कर्म अपने कर्ता को ही फल देता है, भले वह कहीं भी क्यों न चला जाए। पूर्ण प्राणातिपातविरमण नौ कोटि (तीन करण तीन योग से) से होता है-१. प्राणातिपात करना नहीं मन से २. वचन से ३. काय से ४. प्राणातिपात करवाना नहीं मन से ५. वचन से ६. काय से ७. प्राणातिपात करने वाले का अनुमोदन करना नहीं मन से ८ वचन से ६ काय से।