संयम की साधना है सच्चा धन : आचार्य श्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

संयम की साधना है सच्चा धन : आचार्य श्री महाश्रमण

परम पूज्य आचार्य श्री महाश्रमण जी ने पावन प्रेरणा देते हुए फरमाया कि आयारो आगम के दूसरे अध्ययन में उल्लेखित है कि इस संसार में धनी और गरीब दोनों प्रकार के लोग मिलते हैं। कहीं ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं होती हैं, जिनमें समृद्ध लोग रहते हैं, तो कहीं झुग्गी-झोपड़ियों में, और कभी-कभी फुटपाथ पर भी लोग रहते हैं। धन और दरिद्रता जीवन की भिन्न अवस्थाएं हैं। शास्त्रकारों ने धर्म के संदर्भ में यह बात भी बताई है कि कौन व्यक्ति दरिद्र है। साधु को 'तपोधन' कहा गया है, यानी उसकी तपस्या ही उसका धन है। "अभिधान चिंतामणि" कोष, जो संस्कृत शब्दों का पर्यायवाची ग्रंथ है, में कई संस्कृत शब्दों के पर्यायवाची शब्द दिए गए हैं। अगर यह नाममाला स्पष्ट रूप से याद हो जाए और साथ में व्याकरण भी आत्मसात हो जाए, तो संस्कृत पर अधिकार प्राप्त हो सकता है।
साधु का तप और योग उसकी संपत्ति है। जो साधु आज्ञा का पालन नहीं करता, वह दरिद्र साधु कहलाता है। तीर्थंकर की आज्ञा में चलना संयम की साधना है। तीर्थंकर की आज्ञा के बिना कोई कार्य नहीं करना चाहिए। संयम में अरति न रखें और असंयम में रति न रखें। शब्द, स्पर्श, और कष्टों को सहन करें, पौद्गलिक विषयों में राग न करें। कर्म शरीर को धुनें और उससे निर्जरा करें। कठोर और नियंत्रित आहार का सेवन करें। अतीत के कर्मों के कारण मोह का उदय होता है, जिससे व्यक्ति तीर्थंकर की आज्ञा का उल्लंघन कर बैठता है। आज्ञा धर्म है और अनाज्ञा अधर्म। धर्म संघ में आचार्य के अनुशासन-आज्ञा का पालन अनिवार्य है। पारिवारिक संबंधों में भी अनुशासन और आज्ञा का पालन आवश्यक होता है।
प्रेक्षाध्यान शिविर का आयोजन हो रहा है, प्रेक्षाध्यान की साधना को भी एक प्रकार की संपत्ति के रूप में देखा जा सकता है। गृहस्थों द्वारा लिए गए बारह व्रत यदि ठीक से पालन किए जाएं, तो यह भी एक प्रकार का धन है। तपस्या भी एक संपत्ति है, जो आत्मा के काम आती है। भौतिक संपत्ति केवल इस लोक तक ही सीमित है, जबकि धर्म सच्चा धन है। संयम की साधना हमारा सच्चा धन है, इसे संकल्प रूपी ताले से सुरक्षित रखना चाहिए। साध्वी प्रमुखाश्री जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि अणुव्रत के छोटे-छोटे नियम लालटेन की तरह होते हैं, जो व्यक्ति के मार्ग को प्रकाशित करते हैं। अनुशासन ही अणुव्रत का मूल है। आत्मा के द्वारा आत्मा का अनुशासन आत्मानुशासन कहलाता है। अनुशासन दो प्रकार का होता है- विधि और निषेध।
साध्वीवर्याजी ने सम्यकत्व के पांच लक्षणों में से चतुर्थ लक्षण "अनुकंपा" का महत्व बताया। अनुकंपा से ही धर्म का विकास होता है। सामाजिक जीवन में भी अनुकंपा का महत्व है, यह लौकिक और लौकोत्तर दो प्रकार की होती है। लौकोत्तर अनुकंपा से आत्मा का कल्याण संभव है। मुख्य प्रवचन से पूर्व आचार्य प्रवर ने उपस्थित जनमेदिनी को आध्यात्मिक अनुष्ठान के अंतर्गत मंत्र जप का प्रयोग कराया। पूज्य सन्निधि में अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह का छठा दिन "अनुशासन दिवस" के रूप में मनाया गया।
पूज्यप्रवर ने फरमाया कि अणुव्रत की परिभाषा है - "स्वयं पर स्वयं का अनुशासन"। मनुष्य को स्वयं को अनुशासन में रखना चाहिए, फिर दूसरों पर भी अनुशासन की बात हो सकती है। संयम और तप से आत्मा का अनुशासन संभव है। मन, वाणी, शरीर, और इंद्रियों पर नियंत्रण आत्मानुशासन है। पूज्यवर की सन्निधि में सूरत पुलिस के होमगार्ड्स पहुंचे। होमगार्ड अधिकारी सी.बी. बोहरा ने अपनी भावना व्यक्त करते हुए अनुशासन को शासन के नियमों का पालन बताया। संजय बोथरा ने कार्यक्रम की जानकारी दी। पूज्यवर ने होमगार्ड्स को सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति की संकल्पत्रयी ग्रहण करवाई। आचार्य प्रवर के दर्शनार्थ सौराष्ट्र से संघबद्ध लोगों का आगमन हुआ। आचार्य प्रवर ने अनुकम्पा बरसाते हुए राजकोट में वर्धमान महोत्सव करने की घोषणा की। बेंगलुरु से समागत माणकचंद संचेती ने अपने विचार व्यक्त किए। बेंगलुरु ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी प्रस्तुति दी तथा ज्ञानशाला की प्रशिक्षिकाओं ने गीत का संगान किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।