धर्म है उत्कृष्ट मंगल
ये नौ भंग प्राणातिपात-विरमक व्यक्ति से संबंधित हैं। जिन जीवों से प्राणातिपात विरमण किया जाता है, उनको साथ में जोड़ने पर प्राणातिपात-विरमण के ८१ विकल्प बन जाते हैं। जीवों के नौ प्रकार- १. पृथ्वीकायिक जीव २. अप्कायिक जीव ३. तेजस्कायिक जीव ४. वायुकायिक जीव ५. वनस्पतिकायिक जीव ६. द्वीन्द्रिय जीव ७. त्रीन्द्रिय जीव ८. चतुरिन्द्रिय जीव 9. पंचेन्द्रिय जीव। इन नौ प्रकार के जीवों में प्रत्येक के साथ पूर्वोल्लिखित तीनकरण-तीनयोग के नौ विकल्प करने से ६५६ = प१ भंग बन जाते हैं, जैसे–
१. पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करना नहीं मन से।
२. पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करना नहीं वचन से।
३. पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करना नहीं काय से।
४. पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करवाना नहीं मन से।
५. पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करवाना नहीं वचन से।
६. पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करवाना नहीं काय से।
७. पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा का अनुमोदन करना नहीं मन से।
८. पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा का अनुमोदन करना नहीं वचन से।
६. पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा का अनुमोदन करना नहीं काय से।
पृथ्वीकायिक के जैसे नौ भंग बने हैं, वैसे ही अप्कायिक आदि के भी नौ-नौ भंग बनाये जाते हैं। कुल ८१ भंग प्राणातिपात-विरमण (अहिंसा महाव्रत) के निष्पन्न होते हैं।
तत्त्वार्थ सूत्र में हिंसा (प्राणातिपात) की परिभाषा की गई है-प्रमत्तयोगाद् प्राणव्यपरोपणं हिंसा प्रमादयुक्त योग से जीव का प्राणवियोजन करना हिंसा है।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्
विचार-सम्प्रेषण का माध्यम है भाषा। वह लिखित भी हो सकती है और भाषित भी हो सकती है। लिखित भी शब्द होते हैं और भाषित भी शब्द होते हैं। शब्द जड़ होते हैं परन्तु हमारी भावाभिव्यक्ति के सक्षम माध्यम बनते हैं। कलह और झगड़े के माध्यम भी शब्द बन जाते हैं तो शांति और सौहार्द को स्थापित करने में भी शब्दों का योगदान होता है। जैसे भाषित शब्द वैमनस्य और सौमनस्य पैदा कर सकते हैं वैसे ही लिखित शब्द भी वैमनस्य और सौमनस्य की स्थिति को उत्पन्न कर सकते हैं। भाषित और लिखित शब्द मनुष्य का सही मार्गदर्शन भी कर सकते हैं और मनुष्य को गुमराह भी कर सकते हैं। वास्तव में देखा जाए तो यह सारी शक्ति मूलतः शब्द की नहीं है, अन्तर्यर्भित भाव ही मूल स्रोत होते हैं। शब्द तो पोस्टमैन की भांति एक व्यक्ति के भावों को दूसरे व्यक्ति तक पहुंचा देते हैं। परन्तु माध्यम का काम शब्द करते हैं, अभिव्यक्त शब्द होते हैं। इसलिए शब्दों का भी महत्व है। सतही भाग शब्द का है और गहराई का भाग भावों का है, यह भी यथार्थ प्रतीत होता है। गहराई तक जाने के लिए भी पहले सतह तक पहुंचना होता है।
शब्द का परिष्कार करने का अर्थ है भाव परिष्कार की ओर प्रस्थान करना। शब्द अपने आपमें न सत्य है, न झूठ है। यह तो जड़ मात्र है, उनके साथ जैसा भाव जुड़ता है वे वैसे बन जाते हैं। शब्द के साथ सत्य का भाव जुड़ता है तो वह सत्य भाषा हो जाती है। शब्द के साथ मृषा का भाव जुइता है तो वह मृषा भाषा बन जाती है। शब्द के साथ प्रिय का भाव जुड़ा वह प्रिय भाषा बन जाती है। शब्द के साथ कटुता का भाव जुड़ा वह कटु भाषा बन जाती है। आध्यात्मिक जगत् में सर्वाधिक महत्त्व भाव का है। शरीर, वाणी और मन का अपने आप में विशेष महत्त्व नहीं है। भाव के साथ जुड़ने से वे अच्छे या बुरे बनते हैं, उनकी प्रवृत्ति अच्छी या बुरी बनती है।
जैन आगमों में चार प्रकार की भाषा बतलाई गई है-सत्यभाषा, असत्यभाषा, मिश्रभाषा और व्यवहार भाषा।
सत्यभाषा– यथार्थ का प्रतिपादन करने वाली भाषा।
असत्यभाषा– अयथार्थ का प्रतिपादन करने वाली भाषा।
मिश्र भाषा– यथार्थ और अयथार्थ के निश्चित रूप का प्रतिपादन करने वाली भाषा।
व्यवहार भाषा– आदेश, निर्देश एवं उपदेश को अभिव्यक्ति देने वाली भाषा। जैसे तुम यह करो, तुम यह मत करो, इत्यादि।