श्रमण महावीर
(पिछला शेष)
अच्छंदक अवसर की खोज में था। एक दिन उसने देखा, भगवान् अकेले खड़े हैं। अभी ध्यान मुद्रा में नहीं हैं। वह भगवान् के निकट आकर बोला, 'भंते! आप सर्वत्र पूज्य हैं। आपका व्यक्तित्व विशाल है। मैं जानता हूं, महान् व्यक्तित्व क्षुद्र व्यक्तित्वों को ढांकने के लिए अवतरित नहीं होते। मुझे आशा है कि भगवान् मेरी भावना का सम्मान करेंगे।'
इधर अच्छंदक अपने गांव की ओर लौटा और उधर भगवान् वाचाला की ओर चल पड़े। उनकी करुणा ने उन्हें एक क्षण भी वहां रुकने की स्वीकृति नहीं दी।
गंगा में नौका-विहार
ऐसा कौन मनुष्य है जिसने प्रकृति के रंगमंच पर अभिनय किया हो और अपना पुराना परिधान न बदला हो। जहां बदलना ही सत्य है वहां नहीं बदलने का आग्रह असत्य हो जाता है।
भगवान् महावीर अहिंसा और आकिंचन्य की संतुलित साधना कर रहे थे। उनके पास न पैसा था और न वाहन। वे अकिंचन थे, इसलिए परिव्रजन कर रहे थे। वे अहिंसक और अकिंचन-दोनों थे, इसलिए पद-यात्रा कर रहे थे।
भगवान् श्वेतव्या से प्रस्थान कर सुरभिपुर जा रहे थे। बीच में गंगा नदी आ गई। भगवान् ने देखा, दो तटों के बीच तेज जलधारा बह रही है, जैसे दो भावों के बीच चिंतन की तीव्र धारा बहती है। उनके पैर रुक गए। ध्यान के लिए स्थिरता जरूरी है। स्थिरता के लिए एक स्थान में रहना जरूरी है। किन्तु अकिंचन के लिए अनिकेत होना जरूरी है और अनिकेत के लिए परिव्रजन जरूरी है। इस प्राप्त आवश्यक धर्म का पालन करने के लिए भगवान् नौका की प्रतीक्षा करने लगे।
सिद्धदत एक कुशल नाविक था। वह जितना नौका-संचालन में कुशल था, उतना ही व्यवहार-कुशल था। यात्री उसकी नौका पर बैठकर गंगा को पार करने में अपनी कुशल मानते थे।
सिद्धदत्त यात्रियों को उस पार उतारकर फिर इस ओर आ गया। उसने देखा, तट पर एक दिव्य तपस्वी खड़ा है। उसका ध्यान उनके चरणों पर टिक गया। वह बोला, 'भगवन्! आइए, इस नौका को पावन करिए।'
'क्या तुम मुझे उस पार ले चलोगे?' भगवान् ने पूछा।
नाविक बोला,' भंते! यह प्रश्न मेरा है। क्या आप मेरी नौका को उस पार ले चलेंगे?'
सिद्धदत का प्रश्न सुन भगवान् मौन हो गए। उनका मौन कह रहा था कि उस पार स्वयं को पहुंचना है। उसमें सहयोगी तुम भी हो सकते हो और मैं भी हो सकता हूं।
भगवान् नौका में बैठ गए। उसमें और अनेक यात्री थे। उनमें एक था नैमित्तिक । उसका नाम था खेमिल। नौका जैसे ही आगे बढ़ी, वैसे ही दायीं ओर उल्लू बोला।
खेमिल ने कहा, 'यह बहुत बुरा शकुन है। मुझे भंयकर तूफान की आशंका हो रही है।' नैमित्तिक की बात सुन नौका के यात्री घबरा उठे।
इधर नौका गंगा नदी के मध्य में पहुंची, उधर भंयकर तूफान आया। नदी का जल आकाश को चूमने लगा। नौका डगमगा गई। उत्ताल तरंगों के थपेड़ों से भयाक्रांत यात्री हर क्षण मौत की प्रतीक्षा करने लगे। भगवान् उन प्रकंपित करने वाले क्षणों में भी निष्कंप बैठे थे। उनके मन में न जीने की आशंसा थी और न मौत का आतंक। जिनके मन में मौत के भय का तूफान नहीं होता, उसे कोई भी तूफान प्रकंपित नहीं कर पाता।
तूफान आकस्मिक ढंग से ही आया और आकस्मिक ढंग से ही शान्त हो गया। यात्रियों के अशान्त मन अब शान्त हो गए। भगवान् तूफान के क्षणों में भी-शान्त थे और अब भी शान्त हैं। खेमिल ने कहा, 'इस तपस्वी ने हम सबको तूफान से बचा लिया।' यात्रियों के सिर उस तरुण तपस्वी के चरणों में झुक गए। नाविक ने कहा, 'भंते! आपने मेरी नैया पार लगा दी। मुझे विश्वास हो गया है कि मेरी जीवन-नैया भी पार पहुंच जाएगी।'
नौका तट पर लग गई। यात्री अपने-अपने गंतव्य की दिशा में चल पड़े भगवान् थूणाक सन्निवेश की ओर प्रस्थान कर गए।