तामसिक गुणों को छोड़ सद्गुणों को ग्रहण करने का हो प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण
अनंत आस्था के केंद्र आचार्यश्री महाश्रमणजी ने जिनवाणी का अमृत का पान कराते हुए कहा कि आगमों में अनेक प्रकार के विषय वर्जित हैं। आगमों में एक ओर तत्वज्ञान संबंधी बातें मिलती हैं, तो दूसरी ओर कथानक और घटनाएँ भी वर्णित हैं। इसके साथ-साथ इसमें आध्यात्मिक पथदर्शन भी मिलता है। धर्म प्रवचन के संदर्भ में भी आगम वाङ्गमय में कुछ दिशा-निर्देश प्राप्त होते हैं।आयारो में बताया गया है कि साधु को अपरिग्रह की बात, चाहे वह अमीरों के बीच में हो या गरीबों के बीच में, सबके सामने रखनी चाहिए। अमीर और गरीब दोनों को उपदेश और पथदर्शन की आवश्यकता होती है। साधु जो स्वयं सन्यास और त्याग का जीवन जीता है, उसके प्रवचन का गहरा प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि जनता का साधुओं के प्रति श्रद्धा और विश्वास अधिक होता है। साधु के उपदेशों से जनता का कल्याण हो सकता है। साधु जब धर्म कथा करते हैं और जीवन का पथदर्शन प्रदान करते हैं, तो उसका असर श्रोताओं पर हो सकता है। सुनना भी एक कला है, और आजकल तो साधनों की मदद से घर-घर में प्रवचन आसानी से पहुंच जाता है। साधु के उपदेश सुनकर लोग अपने दुर्व्यसनों को छोड़ सकते हैं। साधु के उपदेश से न केवल दूसरों को बल्कि स्वयं साधु को भी लाभ होता है। जयणा से बोलने पर धर्म का लाभ मिलता है, और साथ ही कर्म निर्जरा भी होती है।
भारत में आज कई पंथ हैं, प्राचीन ग्रंथ हैं और कई संत हैं, जो ज्ञान के खजाने से भरे हुए हैं। आज दशानन रावण के अंत का दिन है। पापी से नहीं, बल्कि पाप से घृणा करो। जैन रामायण की दृष्टि से देखें, तो रावण में भी कुछ विशेषताएँ थीं। रावण ने कहा था कि उत्तम पुरुष परस्त्री की इच्छा नहीं करते। वह चरित्रवान और विद्या-संपन्न पुरुष था। लक्ष्मणजी के द्वारा रावण का वध चक्र के प्रयोग से हुआ था। हमें भीतर के तामसिक गुणों को निकालकर सद्गुणों को अपनाने का प्रयास करना चाहिए। संतों और पंथों से हमें पथदर्शन मिलता है। दस लाख योद्धाओं को जीतने वाला विजयी होता है, लेकिन अपनी आत्मा को जीतने वाला परमजयी होता है। हमें अपने भीतर की आकांक्षाओं को छोड़कर आत्मजयी बनने का प्रयास करना चाहिए। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने कहा कि अक्षय तृतीया और विजया दशमी को शुभ तिथियों के रूप में माना जाता है। आज के दिन नया कार्य प्रारंभ किया जाता है। पुराने समय में लोग शस्त्रों की पूजा करते थे और अपनी विजय के लिए अपने इष्टदेव से प्रार्थना करते थे। वर्तमान में भी शस्त्रों की पूजा होती है, और हर व्यक्ति चाहता है कि उसकी विजय हो और उसमें सद्गुणों का विकास हो।
डाकलिया परिवार ने आचार्यश्री के समक्ष गीत के माध्यम से अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति दी। अंतर्राष्ट्रीय भगवताचार्य पंकजदास व्यास ने आचार्यश्री के समक्ष अपनी भावना व्यक्त की। पशुपतिनाथ मंदिर-नेपाल की व्यवस्था समिति के ग्यारह सदस्यों ने आचार्यश्री के समक्ष अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने इस संदर्भ में प्रेरणा प्रदान की। कलरएक्स के जयंतीभाई कबूतरवाला ने अपने विचार व्यक्त किये। तुलसी अमृत निकेतन संस्थान-कानोड़ की ओर से कल्याणसिंह पोखरना ने अपनी अभिव्यक्ति दी। कांतिलाल पीपाडा ने अपने मनोभाव प्रकट किये। सूरत एवं अहमदाबाद-ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी मोहक प्रस्तुतियां दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।