माया और आसक्ति को जीत लेता है वीर पुरुष : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

माया और आसक्ति को जीत लेता है वीर पुरुष : आचार्यश्री महाश्रमण

अप्रमत साधक शांति दूत आचार्य श्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि 'आयारो' आगम में कहा गया है— जो मनुष्य वीर होता है, वह माया और आसक्ति को जीतने में समर्थ होता है। वह वीर पुरुष लोक-संयोग का अतिक्रमण कर देता है। लोक-संयोग में सोना, चांदी, भौतिक पदार्थ, माता-पिता और अन्य पारिवारिक जन के प्रति ममत्व भाव रहता है। एक ओर संसार का मार्ग है, और दूसरी ओर मोक्ष का मार्ग। मोह और ममत्व का भाव संसार का मार्ग है, जबकि निर्मोहता मोक्ष का मार्ग है। जो अध्यात्म के संदर्भ में वीर पुरुष होता है, वह निर्मोह के मार्ग पर चलकर मोक्ष की ओर अग्रसर हो जाता है। आसक्ति में रहने वाला मोहाविल पुरुष संसार के मार्ग पर ही चलता रहता है, और वह अवीर (कायर) होता है। मोक्ष के मार्ग में मोह का परित्याग आवश्यक होता है, जबकि संसार के मार्ग में मोह का पोषण किया जाता है। चार कषाय और राग-द्वेष आदि मोह के पारिवारिक सदस्य हैं। परिग्रह का त्याग करना वीरता का प्रतीक है। अतीत में कई व्यक्तियों ने संतत्व प्राप्त किया है, कई सतियां हुई हैं। आचार्य भिक्षु ने युवावस्था में ही घर-परिवार और परिग्रह का त्याग कर दिया था।
कुछ लोग तो बाल्यावस्था में ही परिग्रह का त्याग कर देते हैं। साधुओं में संबंधातीत चेतना होती है। साधु का जीवन अपरिग्रह की चेतना, ममत्व से मुक्ति और सांसारिक मोह से मुक्त रहने की अपेक्षा करता है। साधु अपने छोटे परिवार को छोड़कर धर्मसंघ रूपी बड़े परिवार में प्रवेश करते हैं। धर्मसंघ का भाव प्रशस्त होता है। प्रशस्त राग और अप्रशस्त राग में अंतर होता है। प्रशस्त व्यक्ति के प्रति राग परिष्कृत राग है, जबकि सांसारिक राग अप्रशस्त राग है। फिर भी, राग तो राग है, और उसे त्यागना ही होगा। वीर पुरुष ममत्व और मोह को छोड़ देता है। मुख्या प्रवचन से पूर्व आचार्यश्री महाश्रमणजी ने नवान्हिक अनुष्ठान के सातवें दिन आध्यात्मिक अनुष्ठान का क्रम सम्पादित करवाया। साध्वीवर्या श्री संबुद्धयशाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि सम्यक् दर्शन आध्यात्मिक विकास की आधारशिला है। सम्यक् दर्शन से अज्ञान भी ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है। इससे तत्व की जानकारी होती है, चिंतन का दृष्टिकोण बदल जाता है और विवेक का जागरण होता है। सम्यक्तव के पांच लक्षण बताए गए हैं—शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य। साध्वीवर्या जी ने आस्तिक्य के बारे में विस्तार से समझाया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।