संयम और उत्सव का अनूठा संगम : जैन संस्कार विधि
मनुष्य का जीवन समाज से जुड़ा हुआ है। सामाजिक परंपराएं उसकी जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा होती हैं। पारंपरिक तौर पर, हम इन्हें इसलिए अपनाते हैं क्योंकि हमारे पूर्वज इनका पालन करते आए हैं। लेकिन यदि हम इन परंपराओं का विश्लेषण विवेकपूर्ण और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से करें, तो हम कई निरर्थक आडंबरों और प्रथाओं से बच सकते हैं। जैन समाज की जीवनशैली को दो प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है—एक है उपासना और दूसरा सामाजिक जीवन। उपासना का पक्ष पूरी तरह जैन संस्कृति और परंपराओं पर आधारित है, जबकि सामाजिक जीवन में कई बार बाहरी प्रभाव भी देखने को मिलते हैं। परंतु, समय की मांग है कि जैसे हम उपासना में जैनत्व का पालन करते हैं, वैसे ही हमारे सामाजिक जीवन में भी जैन मूल्यों का पालन हो।
स्वप्नद्रष्टा गणाधिपति आचार्य श्री तुलसी ने सामाजिक जीवन में जैनत्व को प्रबल बनाने के लिए 'जैन संस्कार विधि' की अवधारणा को मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया। उनका मानना था कि संयम, आस्था, और सादगी की त्रिवेणी ही जैन संस्कार विधि का मूल है। वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमणजी का भी यही संदेश है कि जन्म से जैनी होना पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों का फल हो सकता है, लेकिन इस जीवन को संयमित रखने से ही आने वाले जीवन को सुधारा जा सकता है। जीवन में अनेक महत्वपूर्ण पड़ाव आते हैं, इनके अतिरिक्त अनेक पर्व और उत्सव आते हैं जिनमें जैन संस्कार विधि को प्राथमिकता दी जा सकती है। यह विधि मात्र धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि इसमें वैज्ञानिकता, बुद्धिमता, और व्यवहारिकता का समुचित समन्वय है। जैन संस्कार विधि में ऐसे मंत्रों का उच्चारण होता है जो व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन ला सकते हैं। यह विधि मूल रूप से भावनात्मक जुड़ाव करवाती है क्योंकि इसमें स्वयं के द्वारा स्वयं के प्रति मंगलकामना भी की जाती है। कोई अन्य व्यक्ति आपके मंगल की कामना करे, इसका कितना प्रभाव होता है, वह एक अलग विषय हो सकता है परंतु जब आप स्वयं की आत्मा से जुड़कर मंत्रोच्चार करते हैं तो उसके प्रभाव निश्चित रूप से अधिक शक्तिशाली और सकारात्मक होता है।
जैन संस्कार विधि के बौद्धिक पक्ष को देखें, तो इसमें निरंतर अपेक्षित परिवर्तन के साथ विशिष्ट अवसरों के लिए विशिष्ट मंत्रों का समावेश किया गया है। इसमें व्यक्ति विशेष की नहीं अपितु गुणों को प्राथमिकता दी गई है। इसका एक प्रमुख उदाहरण 'मंगल भावना पत्रक' है, जिसका प्रयोग सभी मांगलिक कार्यों में किया जाता है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से, यह विधि आडंबरहीन और सरल है। पश्चिमी संस्कृति में जहां मिनिमलिज्म और आडंबरों से मुक्ति की बात की जा रही है, वहीं जैन संस्कार विधि तो मूलतः इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित है।
कई लोगों को यह भ्रांति है कि जैन संस्कार विधि अपनाने से उत्सवों का आनंद कम हो जाएगा, परंतु यह विधि केवल अनावश्यक फूहड़ता और हिंसा से बचने की बात कहती है। इसमें आनंद और खुशी मनाने की कोई रोक नहीं है। पारिवारिक रीति-रिवाज और गीत-संगीत का पूरा आनंद इस विधि में लिया जा सकता है, बस यह ध्यान रखना होता है कि कोई अनावश्यक हिंसा न हो। यहां यह समझना अपेक्षित होगा कि किसी की अनावश्यक हिंसा करके यदि हम अपना मंगल चाहते हैं तो वह जैन संस्कार विधि ही नहीं अपितु हर विधि के अनुसार अनुचित ही होगा।
जैन संस्कार विधि के पुनरुत्थान में तेरापंथ धर्मसंघ के सुश्रावक भोजराज जी संचेती, न्यायाधीश सोहनराज़ जी कोठारी, पदमचन्द जी पटावरी, डालिमचंद जी नौलखा आदि का विशेष श्रम लगा है। वर्तमान में 500 से अधिक संस्कारक इस विधि को जन-जन तक पहुँचाने का प्रयत्न कर रहे हैं। आज जैन संस्कार विधि जन-जन की विधि बन चुकी है। यह व्यक्ति, परिवार, संघ और समाज के सांस्कृतिक मूल्यों के लिए एक कवच के समान है। इसे स्वीकार करना अर्थात सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की चिरंजीवी बनने की गारंटी। आइए भगवान महावीर निर्वाणोत्सव - दीपावली के अवसर पर प्रण लें, इस विधि को हर विशेष अवसर पर अपनाएं और प्रचारित भी करें। दीपावली पर आतिशबाजी से भी दूर रहने का प्रयास करें। इन सब प्रयत्नों से हम भगवान महावीर के साथ-साथ उनके आदर्शों को भी मान पाएंगे। — संपादक