राग को कम कर आत्म कल्याण के पथ पर बढ़ें आगे : आचार्य श्री महाश्रमण
सद्संस्कारों के प्रदाता, ज्ञान के अथाह सागर आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि आयारो आगम में कहा गया है - साधु साधनाशील होता है। साधना में जागरूक रहना भी आवश्यक है, क्योंकि मोहनीय कर्म के प्रभाव से साधना प्रभावित हो सकती है। मोहनीय कर्म का एक हिस्सा है - संग, राग, और आसक्ति। साधु इस आसक्ति को खतरनाक समझे और इसे आवृत्त स्रोत के रूप में समझे। इन्द्रियों में आसक्ति होने से मन भ्रांत हो जाता है और उसमें फंस जाता है। यह राग का आवरण है। राग के बिना आत्मा में द्वेष नहीं होता। क्रोध, मान, और माया नौवें गुणस्थान में क्षय हो जाते हैं, जबकि लोभ दसवें गुणस्थान तक बना रहता है। क्रोध और मान द्वेष हैं, जबकि माया और लोभ राग हैं। साधु के लिए कहा गया है कि कहीं भी ममता का भाव न रखें और किसी भी चीज़ से बंधे न रहें। मुनि राग से विरक्त रहने का प्रयास करें। गृहस्थ जीवन में भी यदि आगे बढ़ना है तो राग को कम करना चाहिए। राग के समान दुःख नहीं है, और त्याग के समान सुख नहीं है। राग को छोड़ें और त्याग का मार्ग अपनाएं। जितना व्यक्ति त्याग के पथ पर आगे बढ़ता है, उतना ही आत्म-कल्याण की ओर आगे बढ़ सकता है।
त्याग का सुख स्व-अवस्था का है, जबकि राग का सुख परवशता का है। जो पर के वश में है वह दुःख है, और जो स्व के वश में है वह सुख है। हमें स्वावलंबी बनना चाहिए ताकि हम सुखी बन सकें। दो हाथ और दो पैर – ये चार नौकर हमारे स्वस्थ रहें, तो हम परवश नहीं होंगे। दूसरे पर निर्भर न रहें। परस्पर सहयोग की बात अलग है। निःसंग और असंग रहें। संग का अर्थ है स्रोत, और स्रोत का अर्थ है द्वार। हमारे शरीर में भी नौ द्वार हैं, जिनसे शरीर की गंदगी निकलती है। इस गंदगी से जिन्दगी बनी रहती है। गृहस्थ भी जितना आसक्ति से बचकर रहेंगे, उतना अच्छा है। संयम का भूषण आत्मा के साथ रहे। बाहरी आभूषण भार हैं। जीवन में सादगी और संयम रखें। अराग का भाव बढ़े। उम्र के आखिरी पड़ाव में अपरिग्रही बनें, और धार्मिक-आध्यात्मिक सेवा करें। आसक्ति को जितना हो सके कम करने का प्रयास करें। आचार्यप्रवर ने तेरापंथी श्रावकों को यथासंभवतया सुमंगल साधना की दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान की।
पूज्यवर की सन्निधि में आयोजित राष्ट्रीय ज्ञानशाला प्रशिक्षक सम्मेलन एवं दीक्षांत समारोह के सन्दर्भ में राष्ट्रीय संयोजक सोहनराज चौपड़ा तथा महासभा के संगठन मंत्री प्रकाश डागलिया ने अपनी अभिव्यक्ति दी। सूरत ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने गीत की प्रस्तुति दी। पूज्यवर ने आशीर्वचन प्रदान करते हुए फ़रमाया कि ज्ञान वह होता है जिससे व्यक्ति राग से मुक्त होकर कल्याण में संयुक्त हो जाए। अध्यात्म विद्या भी ज्ञान का अंग है। ज्ञानशाला उस आध्यात्मिक ज्ञान का प्रारंभिक रूप है। जगह-जगह छोटे-छोटे बच्चे ज्ञानशाला से जुड़कर ज्ञान प्राप्त करते हैं। हजारों प्रशिक्षक प्रशिक्षण दे रहे हैं, यह निष्पत्ति-मूलक कार्य है। व्यवस्था पक्ष भी मजबूत होना चाहिए। प्रशिक्षक अपने ज्ञान का विकास करते रहें। संख्यात्मक विकास के साथ-साथ गुणवत्ता भी बढ़ती रहे। जयपुर से समागत नरेश मेहता ने अपनी भावनाएं प्रकट की। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।